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Vinita Shukla

Others

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Vinita Shukla

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सिल्वर एनिवर्सरी

सिल्वर एनिवर्सरी

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 हरिदेव उत्साह में थे।  छोटे भाई और बहन के विवाह के बाद, घर पर, यह पहला महत्वपूर्ण समारोह था। हालांकि उनके खानदान में, पहले कभी, ऐसा उत्सव नहीं मनाया गया। वे ठहरे- ठेठ देहाती। शहरी चोंचले, उनकी समझ से बाहर थे; किन्तु बदलते समय के साथ, धारणाएं भी बदल रही थीं। बच्चों के शौक की खातिर, घर में, ‘बर्थ डे सेलिब्रेशन’ होने लगे। बात- बेबात पार्टी दी जाने लगी.... और अब.... ! उन्हें यह शुभ दिन कभी याद ना रहता किन्तु हर वर्ष, गाँव में ठाकुर परिवार द्वारा, आयोजित गंगा- मेला, इसका स्मरण करा देता। गंगा की एक उपधारा, उनके गाँव से होकर निकलती। उस विशेष अवसर पर, नदी- तट के समानांतर, कपड़ों, बर्तनों और घरेलू सामानों की अनेक दुकानें, सजी रहतीं।

हर बार की तरह, इस बार भी बड़े ठाकुर का फोन आया था- मेले का मौखिक आमंत्रण देने के लिए। हरिदेव शर्मा के पुरखे, ठाकुर जी के, पैतृक मन्दिर की देखभाल करते आये थे- इस कारण, वे न्यौता देना न भूलते। शर्मा जी भी छुट्टी लेकर, आयोजन में भागीदारी का, पूरा प्रयास करते। यह और बात थी कि उस दिन ही, उनकी शादी की सालगिरह होती.... परन्तु उसे मनाना, उनकी प्राथमिकता में ना होता। श्रीमती जी को, कोई महँगा उपहार देकर, वे कर्तव्य की इतिश्री कर लेते।  इस बार, जब बड़े ठाकुर ने बताया कि मेले की रजत- जयंती है तो हरिदेव सचेत हो गये। उन्हें सुध हो आयी कि कुटुंब के कुछ वयोवृद्ध सदस्य, उनके ही फेरों के समय, मौजूद नहीं थे.... ठाकुर खानदान को, मेले का उद्घाटन करना था; इस हेतु पूजा में, उनके परिवार की भागीदारी, महत्वपूर्ण थी।

मेले के पच्चीस साल होने को आये और उनके ब्याह के भी। वे यह बात, अपने बच्चों से, साझा किये बिना, रह न सके। बस फिर क्या था! आनन फानन में, सिल्वर- एनिवर्सरी की रूपरेखा, बन गई। बच्चों के साथ, माँ की सहमति भी शामिल थी। नून- तेल- लकड़ी के फेर में, शादी की ‘क्वाटर- सेंचुरी’ कैसे हुई.... पता ही ना चला! दायित्वों को निभाते हुए, जीवन की शाम हो गई। अपनी व्यक्तिगत आवश्यकताओं के बारे में, कभी विचार नहीं किया। यह पहला अवसर था, जब उनको सार्वजनिक तौर पर, अपनी ‘बेटर हाफ’ के बारे में, कुछ कहना था.... कुछ निजी तो कुछ परिवार की बातें बतलाकर, ‘श्रीमती जी’ का महिमामण्डन करना था। किन्तु वे सोच नहीं पा रहे थे कि कहाँ से शुरू करें। जिस स्त्री को जब- तब, मूरख, अपढ़ कहकर झिड़क देते थे, उसकी स्तुति के लिए, अपने सुर कैसे बदलें?! वह और निम्मो, मंडप के नीचे, जब सात फेरों के बंधन में बंधे, उनकी उम्र कच्ची थी। तब वे ‘दाम्पत्य’ शब्द का, अर्थ तक नहीं समझते थे।

    यह तो दो परिवारों की सुविधा के लिए, किया गया समझौता था। ग्रामीण पृष्ठभूमि से सम्बन्ध रखने के कारण, उन्हें नहीं लगा कि ज़िन्दगी के साथ, खिलवाड़ हो रहा था। १५- १६ साल का दूल्हा और दुल्हन- उससे लगभग दो बरस छोटी। गांव में तो यह आम बात थी। आजकल ऐसा, वहां भी, देखने को नहीं मिलता- ख़ासकर सन २००६ में बने, सख्त कानून के बाद। सोचते हुए, हरिदेव ने, एक ठंडी सांस भरी। संयुक्त परिवार से अलग होने के बाद, गिरस्ती का पूरा बोझ, अकेली अम्मा पर आन पड़ा। बहू के रूप में उन्हें, नौकरानी की दरकार थी और निम्मो के पिता को, कुंवारी बेटियों की फेहरिस्त से, एक नाम काटना था।

विचारमग्न हरिदेव की, तन्द्रा भंग करते हुए, कुछ शब्द गूंजे-

 ‘डी. जे. वाले से बात हो गयी?’

 ‘हाँ बिन्नू’ .... ’

और कैटरिंग की व्यवस्था?’

 ‘हां भई.... ऑलमोस्ट’

‘और फूलवाले की तैयारी.... पूरी तो है?’

‘चिल मार यार.... सब हो जाएगा। ’

   विघ्नेश उर्फ़ बिन्नू, उनका बेटा....सच में, बड़ा हो गया। दोस्त के साथ, उसकी बातचीत सुन, वे मानो नींद से जागे। १६ साल का बिन्नू, माता- पिता के विवाह की, रजत- जयंती मनाने को उत्सुक....यही आयु थी हरिदेव बनाम हरिया की- जब चंद नोटों और उपहारों के बदले.... लड़कीवालों ने, उनका भविष्य खरीद लिया। दसवीं पास, देहाती बीबी को लेकर, उन्हें शर्म महसूस होती। बी. कॉम. के बाद बी। एड। और सरकारी स्कूल में टीचरी करते हुए, परास्नातक की परीक्षा पास करना और फिर, प्रधानाचार्य के पद तक पहुंचना, उनके जीवन की उपलब्धि रही। इस मकाम को हासिल करने में, निम्मो भी उनका सहारा बनी; लेकिन हरिदेव के लिए, उसके त्याग और तपस्या का, कोई मोल ना था। उनको तो उसे देखकर ही चिढ़ लगती।

वह स्त्री जो परिवार की धुरी थी.... उनके माता - पिता, भाई- बहन की, सेवाटहल करने वाली.... उनकी संतानों के, नखरे झेलने वाली; फिर भी अयोग्य और गंवार समझी जाती। सारा दिन घरेलू कामों का बेगार, किन्तु कोई सराहना नहीं.... पति और घरवालों की दुत्कार, अवश्य, उसके हिस्से आती ! हरिदेव ने कलम उठा ली और लिखना शुरू किया। मन में सोच लिया कि सिल्वर एनिवर्सरी पर, पत्नी के संघर्ष की कथा, बेझिझक सबको सुनायेंगे। उन्होंने कभी भी, खुलकर, उसकी तारीफ न की। संस्कार ही कुछ ऐसे थे। संयुक्त परिवार में , वे लम्बे समय तक रहे। वहां, जहाँ - पत्नी और बच्चों से, प्रेम जताना ही वर्जित था, क्योंकि उससे, कुटुंब के अन्य सदस्यों की, अवमानना हो जाती!

आठवीं पास रही, निम्मो उर्फ़ निर्मला देवी - जब उसका लगन हुआ। होने वाली सासूमाँ तो, बिदाई उसी वक्त, करवा लेना चाहती थीं किन्तु गौने की रीत ने, उन्हें ऐसा करने से रोक लिया। निर्मला आगे पढ़ना चाहती थी.... जैसे तैसे उसके पिता ने, दो लम्बे साल खींच लिए। तब तक उनकी बिटिया ने, हाई- स्कूल कर लिया था। ससुराल वालों ने मैके में और अधिक रुकने की, अनुमति नहीं दी। गौना करवाना ही पड़ा। विदा होकर आयी तो रहरहकर, आँखें नम हो जाती थीं। पतिदेव ने कारण पूछा तो मन में दबा बवंडर, रुलाई में फूट पड़ा। उसने स्पष्ट कह दिया कि वह अभी आगे पढ़ना चाहती थी। यद्यपि निम्मो इतनी परिपक्व न थी कि शिक्षा का महत्व, सही अर्थों में समझ सकती; परन्तु अपने गाँव में, पढ़ी- लिखी दीदियों का रुआब देख, वह भी वैसी ही, समर्थ बनना चाहती।  

अतीत की यात्रा पर निकले, हरिया ने लिखा, ‘मैंने उसे समझाया कि माता- पिता को, मेरे अलावा, अन्य दो बच्चों को ‘निपटाना’ था। ऐसे में वे, उसकी शिक्षा- दीक्षा का बोझ, कैसे उठा सकते थे?! दरअसल मैं डरता था कि ज्यादा तीन- पाँच किया तो बाऊजी मेरी पढ़ाई छुड़वाकर, मुझे खेती में झोंक देंगे.... और इस तरह निम्मो, घर में खटने वाली सेविका बनकर रह गई। ’ गुजरे हुए कल को याद करने चले तो आप ही, सुधियों का ताँता लग गया। निर्मला ने नैहर की सहेली से, इंटरमीडिएट की पुस्तकें मंगाई थीं। हरिदेव की स्वयम की पुस्तकें भी थीं। वे निम्मो के काम आ सकती थीं परन्तु बाऊजी ने बिना पूछे, उन्हें, हरिया के चचेरे भाई को दे दिया।

लेखनी का प्रवाह जारी था, ‘निर्मला ने गुपचुप तरीके से, इंटर का, फॉर्म भी भर दिया था। यह जुगाड़ उसने कैसे किया, मैं आज तक, जान नहीं पाया। रात में जब सब सो जाते, वह लालटेन की रौशनी में, पढ़ती रहती। परिवार में किसी को खटका तक न हुआ कि वह परीक्षा की तैयारी कर रही थी। योजना के अनुसार उसे, अपने भाई रतन के; जनेऊ के लिए, मइके जाना था। वहां से, बारहवीं की परीक्षा, देकर ही लौटना था। किन्तु वह सुयोग, कभी बन न सका। अम्मा का पैर टूट गया और निम्मो के अरमान धरे के धरे रह गये। ’

लिखते हुए, हरिया का दिल कसक उठा था। अम्मा को सामान्य होने में, चार- पाँच महीने लगे थे। घर में कोई न कोई तीज- त्यौहार, होता ही रहता। मेहमान आते- जाते रहते। निम्मो को कभी फुरसत नहीं मिलती। अम्मा उठने- बैठने लगीं तो मन में एक उम्मीद जागी। परीक्षा होने में, अभी भी सात महीने थे। रतन का उपनयन, चार माह के बाद था। पढ़ाई की चर्चा की तो अम्मा ने आसमान सर पर उठा लिया। वे मुफ्त की नौकरानी को, खोना नहीं चाहती थीं। यहाँ तक कि उसे, भाई के जनेऊ में भी, जाने ना दिया! अपनी कोखजायी रानी के पढ़ने पर, उन्हें आपत्ति न थी; वहीं बहू की शिक्षा को लेकर.... घोर उदासीनता! हरिदेव की छोटी सी नौकरी लगी। उसके बाद भी वे, पत्नी को मुक्त न करा सके। जो थोड़ी- बहुत कमाई होती- परिवार की जरूरतों में, स्वाहा हो जाती।

धीरे धीरे निम्मो, दो बच्चों की माँ बन गई। ट्यूशन- कोचिंग करके हरिदेव ने, अपना आर्थिक- स्तर सुधारा; तब जाकर, पत्नी और बच्चों को, अपने संग, शहर ला पाए।  इस बीच निर्मला ने, कई अप्रिय प्रसंग, गिरह बाँध लिए थे। गाँव में उसे, खिन्नता के दौरे पड़ते तो अम्मा को लगता, बहू पर भूत आया है। टोने- टोटके, तंत्र- मन्त्र का सहारा लिया जाता। ये तांत्रिक प्रयोग, निम्मो के जीवन का, हिस्सा बन गये.... यहाँ तक कि वह खुद, उन बातों को मानने लगी थी! अम्मा और बाऊजी, अब नहीं हैं किन्तु यह सत्य है कि उनकी पहनाई हुई बेड़ियाँ, हरिया और निम्मो को, आज भी, जकड़े हैं।  

 उनके उत्तरदायित्व, कभी समाप्त नहीं होते। हरिदेव के अनुज ब्रह्मदेव को, जब कोई नौकरी नहीं मिली तो गाँव में ही, दुकान खुलवानी पड़ी। अपने हिस्से के खेत भी उसे दे दिए ताकि वह जिंदगी की गाड़ी, आगे खींच सके। छोटे भाई- बहन का ब्याह, अम्मा बाऊजी की दवा-दारू और रिश्तेदारों से लेन- देन निपटाते हुए.... खुद के लिए, जीना ही भूल गये, निम्मो- हरिया।  हरिदेव को तो, बड़प्पन का तमगा मिल गया .... किन्तु निर्मला.... उसका क्या?! ब्याहता ननद के घर आने पर, उसे अपनी नई साड़ी उठाकर दे देती.... देवर को छात्रावास के लिए, मठरी, लड्डू बांधकर देने थे तो रात भर जागकर, पकवान बनाती रही। इधर ब्रह्मदेव, पोटली बांधकर सफर पर निकले और उधर थकी हुई भाभी पर मूर्छा छा गई।

हरिया उन घटनाओं को, कलमबद्ध करने लगे। निर्मला पर हुए अन्याय का ठीकरा, घरवालों के मत्थे, फोड़ने से, उन्हें बचना था क्योंकि इससे, उनके घर की बदनामी होती। बड़ी चतुराई से, लेखनी के छल- छंद ने; सारा दोष, सामाजिक- व्यवस्था पर मढ़ दिया। हरिदेव जानते हैं कि पत्नी, अतिशय उदारता दिखाकर, उनका सामीप्य पाना चाहती है। दिल में तो परिवार के लिए, खुंदक ही पालती आयी है। । देवरानी मति पर, रुपयों और गहनों की चोरी लगाना चाहती थी। यह तो हरिया की भलमनसाहत थी कि उन्होंने स्त्री की बात न मानकर, विवेक से काम लिया.... नहीं तो अनर्थ हो जाता! बाद में वही गहने और नोटों की गड्डी, घर की पुरानी अलमारी से, बरामद हुए.... फिर भी.... निम्मो नहीं सुधरी! देवर को उपालम्भ देती रहती है कि उसने, माँ- बाप और छोटी बहन का कोई दायित्व नहीं निभाया.... किसी न किसी बहाने, पैसे भी मांगती है.... कभी रिवाज तो कभी कर्तव्य के नाम पर। हरिया इन बातों पर कुपित होने के बजाय, ग्लानि का अनुभव करते.... क्योंकि निर्मला के मन में, कुछ गांठें तो.... उन्होंने भी बाँधी थीं!

‘नानू.... !’ उनका तीन वर्षीय नाती, वंश, पीठ पर लद गया तो हरिदेव वर्तमान में आये। दूसरी पीढ़ी का चिराग, प्यारा सा बच्चा वंश- जिसे देख, वह अपने सब दुःख, तकलीफ भूल जाते। वंश की माँ, उनकी प्यारी बिटिया अंशिका भी, उनसे लिपट गई। खुशी से हरिदेव की आँखें, छलक आयीं। वे देर तक वंश से खेलते रहे और बीच- बीच में बिटिया के हालचाल लेते रहे। दामाद और छोटी बहन रानी, दो दिन बाद आने वाले थे। गेहूं की कटाई के कारण, ब्रह्मदेव को फुरसत ना थी। उसका कुछ ठीक नहीं था। सोचकर उनका जी खट्टा हो गया।

 खाने के बाद, आराम करने बैठे तो गुजरा समय, अपना हिसाब मांगने चला आया। वह फिर से, यादों में, डूबने- उतराने लगे। निम्मो को कहीं से भी, मानसिक संबल न मिला तो वह पण्डे, पुजारियों और बाबाओं के फेर में पड़ गयी। जब देखो तब गंडे- तावीज, बनवाती रहती है। विघ्नेश और वंश की नजर उतारती रहती है.... गाहे- बगाहे, वंश को दिठौना लगा देती है। अपनी विवाहित बेटी की बलैयां लेती है.... दामाद को वश में रखने के लिए, उसे वशीकरण का टोटका बतलाती है। यह और बात है कि अंशिका, टोटके वाली सलाह को, हंसकर टाल जाती है।

  हरिदेव सब कुछ, खोलकर तो नहीं लिख सकते परन्तु मर्यादित तरीके से, सहचरी का गुणगान, कर ही सकते थे।  यहाँ भी, उनका अपना स्वार्थ, हावी था। निम्मो की प्रशंसा की आड़ में.... अपने बलिदानों का, ब्यौरा भी तो.... देना था उनको! निर्मला की बड़ाई करते हुए, वे स्वयम को बौना महसूस कर रहे हैं। एक समय ऐसा था, जब परिचितों की सुंदर, शिक्षित पत्नियों को देख; उनका मन किया कि अपने गैरकानूनी, बाल- विवाह को, निरस्त कर, दूसरा ब्याह रचा लें.... किन्तु सामाजिक दबाव के चलते, ऐसा साहस ना कर सके। वह तो निम्मो को ही, अपने दुर्भाग्य की, जड़ मानते रहे। किन्तु इसमें, उसकी क्या गलती? आज उसकी जगह, खुद को रखकर, सोचते हैं तो संताप होता है।

  यदि निर्मला भी आकर्षक और पढ़ी- लिखी होती.... तो.... वे परिवार के, कर्तव्य- परायण बेटे, बने रह सकते थे? कदाचित नहीं.... तब वे ख़ुशी ख़ुशी, उसके पल्लू से, बंधकर रहते! उनके शुभचिंतक मित्र, रामनाथ ने सुझाया था, “अब तुम अपने पैरों पर, खड़े हो गये हो.... भाभी को शिक्षित कर सकते हो। खुद भी समय निकाल कर, पढ़ा सकते हो या फिर प्रौढ़- शिक्षा- केंद्र.... ” हरिदेव ने रामनाथ की बात, बीच में ही काट दी। वे सदा अपने हित को, सर्वोपरि रखते थे। बीबी को, पढ़ाई- लिखाई के झमेले में डालते तो बच्चों को संभालने की, अतिरिक्त जिम्मेदारी, उठानी पड़ती.... गांववालों की मेहमानदारी भी, उन्हें ही करनी पड़ती.... पड़े- पड़े, बिस्तर तोड़ने का सुख, जाता रहता!

 अंशिका और विघ्नेश, आगामी कार्यक्रम की, योजना बना रहे थे। माहौल में, हलचल थी। विचारों की आवाजाही से पस्त होकर, हरिदेव ने, आँखें मूंद लीं और आरामकुर्सी पर पसर गये। बाहर के चबूतरे पर, स्टेज बनाने का, प्रबंध होना था। इलेक्ट्रीशियन, वायरिंग का जायजा लेने आया और छोटे- छोटे बल्बों की लड़ी, लगाकर चला गया। फेसबुक और व्हाट्सएप सन्देश भेजे जा रहे थे। बेटे का नया लैपटॉप आ जाने के बाद, उसने अपनी माँ को, पुराना वाला दे दिया। बिन्नू, निम्मो को, कंप्यूटर का प्राथमिक- प्रशिक्षण, देता रहता। इसी से वह भी थोड़ा- बहुत, लैपटॉप चलाना जान गई थी।

  रात काफी हो गई तो हरिदेव सोने चले गये। निर्मला का कुछ पता नहीं था। यूँ भी घर के काम निपटाते हुए, उसे देर हो जाती थी। आधी रात, जब पानी पीने के लिए उठे तो पूजा के कमरे से, फुसफुसाहटों की आवाज़ आई। कमरे में घुप्प अँधेरा था। झांककर देखा तो आँखें चौड़ी हो गयीं! निम्मो लैपटॉप लिए बैठी थी और स्क्रीन पर, तांत्रिक बाबा का चेहरा झलक रहा था। हरिया का गुस्सा, सातवें आसमान पर था! और कोई समय होता तो पत्नी को आड़े हाथों लेते.... परन्तु उनकी सिल्वर एनिवर्सरी नजदीक थी; ऐसे में कोई विवाद, नहीं चाहते थे हरिया। उस कुटिल ढोंगी बाबा ने, पहले भी निम्मो से, पैसे ऐंठे थे। वह अपनी घरेलू बचत की पूँजी, उन पर, लुटाती रही थी।

  हरिदेव को स्मरण हो आया, जब विघ्नेश का दसवीं का एग्जाम था.... और जब अंशिका.... पगफेरे के बाद, ससुराल जा रही थी; निर्मला ने उनके ललाट पर, भस्म मलकर, विदा किया था। माँ की भावना, आहत न हो- इस कारण, बच्चों ने विरोध तो नहीं किया.... परन्तु बाद में उनसे, इसकी चर्चा जरूर की थी। पता चला कि बाबा ने मन्त्र सिद्ध करके, भस्म बनाई थी। हरिया घरवाली पर, बरस पड़े थे। आगे से इन पचड़ों में, ना पड़ने का निर्देश भी दिया। उनकी ढीठ पत्नी, फिर भी बाज नहीं आयी! पूजागृह के अन्धकार में, जो अस्फुट स्वर उभरे थे- उन्हें सुनकर, अनुमान लगाया जा सकता था कि श्रीमती जी, विवाह की रजत- जयंती पर, शुभ- संकल्प लेने वाली थीं। वैवाहिक- बंधन को, दृढ़ करने के लिए, तांत्रिक- अनुष्ठान का विचार था.... बाबाजी ने कहा कि इस हेतु, शत्रुओं को, अशक्त करना होगा।

  पाखंडी तांत्रिक को ज्ञान देते हुए देख, देह में आग लग गई! हरिदेव इसे लेकर, पत्नी का घेराव करना चाहते थे पर अवसर नहीं मिला। गाँव से अतिथि आने लगे थे और निम्मो, उनकी खातिरदारी में, व्यस्त रहती। हरिया ने दिल को समझाया कि अभी समय है। पत्नी समारोह की तैयारी में लगी है। तन्त्र- क्रिया, सम्प्रति, सम्भव नहीं थी.... बाद में जो होगा- सो देखा जाएगा। उन्होंने सायास, चित्त को शांत किया और कागज पर, अपने वक्तव्य को, अंतिम रूप देने में जुट गये।

   उनके निवास पर, चहल पहल, रहने लगी थी। सुबह- शाम ढोलक बजती और घुँघरुओं के साथ, आंचलिक गीत जीवंत हो उठते। हरिया को यह सब, बहुत भला सा लग रहा था। रानी अपने पति और बच्चों को लेकर चली आयी थी। ब्रह्मदेव खुद न आ सका किन्तु मति को, बाल- बच्चों समेत, रवाना कर दिया। वह ऐन वक्त पर, पहुँचने वाला था। सिल्वर एनिवर्सरी से दो दिन पहले की बात है; जमकर नाच- गाना हुआ। भोजन के बाद, घर की औरतों ने, जल्दी जल्दी, रसोई समेटी। थकान से, सबके शरीर शिथिल थे। जिसको जहाँ जगह मिली, वहीं फैलकर सो गया।

    हरिया की नींद, आदतन, रात में खुली। पत्नी बगल में लेटी जरूर थी किन्तु कुछ अस्त- व्यस्त, जान पड़ती थी। उन्होंने उठकर, पानी पिया और पलंग पर लेट गये। आँखें तो बंद कर लीं पर निम्मो की आकुलता, उनको विचलित करने लगी। फिलहाल कुछ पूछना नहीं चाहते थे; इसलिए वे सोने का अभिनय कर रहे थे। उन्हें नींद में पाकर, निर्मला धीरे से उठी और दबे कदमों, बाहर चली गयी। उनका सीना जोरों से धड़क उठा। उन्होंने खुद को समझाया कि निम्मो को, कोई छूटा हुआ काम, याद आ गया होगा.... और फिर.... यह कोई नई बात तो नहीं थी। निर्मला के साथ तो, ऐसा अक्सर होता था।

    बहुत देर बाद भी निम्मो नहीं लौटी तो उनका माथा ठनका। वे टॉर्च लेकर, पत्नी को ढूँढने निकले। रात के डेढ़ बजे थे। अँधेरे में, हाथ को हाथ, नहीं सुझाई दे रहा था। कुछ दूर, पुराने मन्दिर का खंडहर था। वहां से कोई मंद ध्वनि, उठ रही थी। संभवतः संस्कृत के श्लोक, उच्चारित किये जा रहे थे। वे स्वयं को वहां जाने से रोक ना सके। मंदिर की शून्यता में, भंवर की तरह, चक्कर काटती आवाजें- निःसंदेह, निम्मो और बाबा की थीं। वे आक्रोश से, काँपने लगे। तत्क्षण विचार किया कि निर्मला को, दो चार चांटे तो जड़ ही देंगे; लगे हाथ, बाबा पर भी ‘हाथ साफ़’ कर लेंगे।

    बिना आहट किये, वह चुपके से, भीतर आये.... किन्तु ऐसा कुछ दिखा कि अपने स्थान पर ही जड़ हो गये! वहां काले कपड़े से बनी, चंद पुतलियाँ नजर आईं। दीये की टिमटिमाहट में, पुतलियों की आँखें, अजीब ढंग से, चमक रही थीं। उन सबके माथे पर, रक्तवर्णी सिन्दूर का टीका लगा था और पेट पर चिप्पियाँ। चिप्पियों पर, उनके नाम अंकित थे। वे नाम पढ़कर, हरिदेव के रोंगटे खड़े हो गये.... नितांत अविश्वसनीय!! क्रूर समय, मानवीय सम्बन्धों पर, हावी था और वैमनस्य की कटार भोंककर.... उन्हें लहूलुहान करने चला था। बाबा के हाथ में रुद्राक्ष की माला थी; नेत्रों में कुटिलता.... माला फेरकर, वे कोई जाप कर रहे थे। पुतलियों के पास, छोटे छोटे तीर रखे थे। हर पुतली के लिए, एक- एक तीर! निर्मला के मुख पर, शम्शान सी नीरवता छाई हुई.... हरिदेव वहां टिक न सके और सड़क पर आ गये।

   उनके मस्तिष्क में रह रहकर, चिप्पियों पर लिखे, नाम कौंध रहे थे- ब्रह्मदेव, रानी और मति.... ! कुछ दूसरी पुतलियाँ भी थीं, जिनके नाम वे देख ना सके.... किन्तु उसकी आवश्यकता भी कहाँ थी! उन्हें अपने कपोलों पर, आँसुओं की नमी महसूस हुई। बरसों बरस पत्नी को, मनहूस कहकर कोसते रहे.... परन्तु.... क्या वह खुद, एक काबिल पति साबित हुए?! कमरे में आकर, उनकी दृष्टि स्वतः ही, कागज के उस पुर्जे पर टिक गयी; जिसे बांचकर वह, अपनी छद्म महानता का दम्भ, भरने चले थे। उन्होंने आवेश में आकर, उसे चिंदी- चिंदी कर डाला। भावनाओं का मंथन, उन्हें आहत कर रहा था। हरिदेव अपने बनाये कटघरे में, स्वयम खड़े थे। क्या वे सही अर्थों में, सिल्वर एनिवर्सरी, मनाने योग्य थे?? जो भी हो - पत्नी और बच्चों की खातिर, उत्सव में, भाग तो लेना ही था। उनकी सिल्वर एनिवर्सरी, खुद उनके लिए .... जीवन का सबसे बड़ा सबक, बन गई थी!!

     

     

     


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