"ढ़लती साँझ का सूरज"
"ढ़लती साँझ का सूरज"
आज फिर थके मन से सुधा अपने घर के बाहर ब छोटे से बगीचे में चहलकदमी कर रही थी। घर के सभी कामो में खुद को उलझाये रखने पर भी, न जाने क्यों उसका दिन काटे नही कटता था। हाल ही में, सरकारी स्कूल की अध्यापिका पद से सेवा निवृति जो मिल गई थी।
मानो उसके अन्दर का वो एकांकी पन अब उसके खाली जीवन की खामोश दीवारों से टकराने सा लगा था।
वो अब यदा-कदा, अपने विचारों के सागर में अनायास ही गोते लगाने लगती थी। आज भी न चाहते हुऐ, 35 वर्ष पूर्व, अपने विचारों के सागर में समाती चली गई।।
उस समय वो मात्र 25 वर्ष की आद्वितीय सौंदर्य से परिपूर्ण, नवयौवना थी। नीरज उसकी सुंदरता पर पूरी तरह मोहित था।
अचानक पिता की मृत्यु उपरांत, सुधा ने घर की समस्त जिम्मेदारी को पिता की अधूरी जिम्मेदारी कह कर अपने कंधे पर सहज ही सजा ली थी।
बीमार माँ और दो छोटे भाई बहन का एक मात्र अब वो ही सहारा थी।ऐसी परिस्थिति में यदि वो अपने प्रेमी संग, विवाह बंधन में बंध कर ससुराल चली जाती तो उसका पूरा परिवार कच्चे धागे सा टूटकर बिखर जाता।
ये ही सोच कर वो रह- रह कर सिहर जाती। अपने स्वार्थ के लिए वो परिवार के बिखरने का कारण नही बनना चाहती थी।
अतः नीरज के लाख समझने पर कि उसकी जिम्मेदारी अब मैं निर्वाह करूँगा,उसने नीरज को स्पष्ट शब्दों में शादी के लिये इन्कार कर दिया।
सुधा की सरकारी स्कूल में अध्यापिका की नौकरी मिल गई और वो अपनी प्रत्येक जिम्मेदारी को कुशलता से निभा रही थी।
नीरज यदा कदा अपने होने का एहसास दिलाने चला आता था, परन्तु अब नीरज को सुधा की आंखों में उसके प्रीत के रंगों की लालिमा नही, अपितु परिवार की जिम्मेदारी और भाई बहन के सपनों की चमक दिखा करती थी।
नीरज ने सुधा को मानने का हर सम्भव प्रयास किया, परन्तु जब उसने सुधा के समक्ष खुद को असफल पाया तो एक दिन बिना कुछ कहे, वो सुधा के जीवन से दूर हो गया। नीरज का ऐसे अपने जीवन से ओझल हो होना।सुधा को विचलित सा कर रहा था, परन्तु परिवार की खुशी और जिम्मेदारी ने उसे, मानो विचलित होकर रोने से रोक रखा था।
धीरे धीरे दिन बीतने लगे।
माँ अब इस दुनिया मे नहीं रही थी, भाई को विदेश पढ़ाई के लिए भेजा था, परन्तु वहाँ उसने शादी कर वही बसने का फैसला किया।
विवाह से पूर्व एक संदेश मात्र भेजा था, जिसमे लिखा था।
"दीदी मैं अपनी पसंद की लड़की से शादी कर रहा हूँ।। यहाँ अच्छी जॉब भी मिल गई हैं तो अब मैने यही रहने का फैसला किया है,अब शायद ही मैं वापस लौट पाऊँ"।
भाई की खुशी को अपनी खुशी बना कर,फोन पर ही शादी की स्वकृति और अपना ढे़र सारा स्नेह से लिपटा आशीर्वाद भाई को दे दिया।
कुछ समय पश्चात बहन की भी शादी अच्छे लड़के संग कर दी, जो अब दूसरे शहर मे खुशी से रह रही थी।
हाँ कभी कभी मिलने का जाती थी पर साल छह महीने में एक बार।
कई बार बहन ने उसके साथ चलने को कहा पर सुधा ने मना कर दिया शायद ये सोच कर की उन दोनों को साथ देख कर, उसके एकांकी पन में छिपा नीरज उसे हर पल याद आएगा।
अब सुधा बिल्कुल अकेली थी रह- रह कर ये खाली पन उसे काटने को दौड़ता था, परन्तु फिर भी स्कूल के कामो में खुद को उलझा कर न जाने क्यों। खुद को ही धोखा दे रही थी।
पर ये धोखे की दीवार भी उसके कार्यकाल से निवृत्त होने पर रेत की भांति ढह गई थी।
अब सुधा खुद को व्यस्त रखने का भरसक प्रयास करती। परन्तु
ये जीवन का वो अंतिम पड़ाव था, जहाँ स्त्री बिना जीवन साथी के खुद को बेबस, लाचार पाती ।
"बीबीजी।आज खाने में क्या बनाना है"।
कामवाली की आवाज सुनकर सुधा की जैसे तन्द्रा टूटी हो, एक गहरी सांस छोड़ते हुए बोली।
"जो तुम्हें पसन्द हो वो ही बना लो। एक फीकी सी मुस्कान नौकरानी की तरफ फेंकते हुऐ सुधा ने कहा,
"ये क्या बीबी जी। रोज मेरी पसंद ही बनती है, कभी अपनी भी तो बताया करो।
नोकरानी बड़बड़ाते हुऐ रसोई की तरफ बढ़ गई।
सुधा ने डूबते सूरज को बोझिल दृष्टि से एक पल को निहारा ,मानो उसकी दृष्टि में सूरज को नही अपितु स्वंय को अस्त होते देख रही हो।
अपने को संभाल कर सुधा बुझे मन से अपने कमरे मे आ गई फिर जैसे उसे कुछ याद आया। पिछले महीने जब मेघा (छोटी बहन) । मिलने आई थी तो जबरदस्ती फेसबुक पर उसके नाम का अकाउंट बना गई थी ।
सुधा ने लेपटॉप खोल कर इस इंटरनेट के सहारे ही सही खुद को इस कृत्रिम दुनिया की भीड़ में खो देने का फैसला किया।
फेसबुक ऑन करते ही संदेशो की झड़ी देख कर सुधा चौंक गई।
एक एक कर सन्देश पढ़ने लगी
अचानक उसका हृदय 60 की उम्र में भी वही 25 वर्ष की सुधा के समान एक मीठे से अनुभव में लिपटी एक प्यारी सी कसक के साथ तेज गति से धड़कने लगा ।
आँखो से अनायास ही अश्रुधारा बह निकली और होंठ मुस्कुराते हुये, बार बार बस ये ही कह रहे थे।
"नीरज तुम लौट आये।
आज ये ढलता सूरज सुधा के जीवन मे एक नई सुबह देकर गया था।