रानी का रक्षाबंधन
रानी का रक्षाबंधन
सावन की चौदस तिथि।बाजार में काफी चहल–पहल।चारों तरफ खूब शोरगुल,दुकानों में खूब रौनकता। बड़े–बड़े लट्टूओं को जगमगाया गया है।जिसकी इंद्रधनुषी रश्मियाँ आखों को सम्मोहित कर रही हैं। दुकानों में काफी भीड़ है। दरअसल राशाबंधन का पर्व जो आया है।लोग तरह–तरह की राखियाँ और मीठे–मीठे पकवान खरीद रहे हैं। दुकानों में–"भैया मेरे राखी के बंधन को निभाना..।"
स्वर लहरियां गूंज रही थी।ठीक ऐसे समय में दस साल की एक लड़की रानी राखी दुकान के पास पहुंचती है,चूंकि भीड़ बहुत थी।इधर–उधर ताकती है।तभी उसको एक दुकान में भीड़ कम दिखी।
और फिर फुदकते हुए झट से वहाँ पहुंच जाती है।और फिर सारे राखियों को देखने के बाद उसकी नजर एक राखी में अटक जाती है।जिसमे लिखा हुआ था–"मेरे प्यारे भैया।"
फूला न समाते हुए रानी ने बड़े प्यार से हाथ में उठाती है। और कहती है–
"राखी वाले भैया यह राखी कितने की है ?"
तब दुकान वाला कहता है–
"पूरे–पूरे बीस रुपया!!"
इतना सुनते ही रानी के पैरों तले जमीन खिसक जाती है।चूंकि उसके पास तो मात्र बीस रुपया है,और मिठाई भी तो खरीदनी है।और फिर क्या था,वह चुपके से उस राखी को वहीं रख के दुखी हो उल्टे पांव घर आ जाती है।
घर पहुंचकर सुसक–सुसक कर रोने लगती है।उसके बाबा पास आकर पूछते हैं–
"क्या हुआ बेटा क्यों रो रही ?"
रानी कहती है–"बाबा वो राखी....वो मिठाई"...।
बाबा पुनः पूछते हैं–"तो क्या नही मिली ?"
फिर रानी और जोर से रोना शुरू कर देती है।तब उसके बाबा उसको प्यार से वहाँ ले जाने के लिए कहते हैं जहाँ पर दुकान थी।वहाँ जाकर उसके बाबा को समझ में आ गया और उसने बीस की राखी दस रुपए में देने के लिए दुकानदार से खूब गिड़गिड़ाया पर उसने साफ मना कर दिया।
तब तो रानी यह कहते हुए और जोर–जोर रोना शुरू कर दिया की आज वह अपने भाई को राखी नही बांध पाएगी।
इतना सुनने के बाद भी दुकानदार को रंच मात्र भी दया नही आई।उल्टा नाराज होकर वहाँ से जाने के लिए कह दिया।तब उसके बाबा दुखी होकर कहते है– "ठीक है !ठीक है!चले जाते हैं! पर एक बात याद रखना किसी के आंसू,बेबसी,और गरीबी का मजाक कभी मत उड़ाना।इसके आंसु में भाई का प्रेम है,यह मात्र राखी नही है इसमें भाई बहन के अटूट प्रेम का बंधन है।जिसने आज तुमने तोड़ दिया।और वहाँ से रानी को समझाते हुए दुखी होकर चला आता है।
इधर जैसे ही घर वापस आया उसके घर के सामने एक चमचमाती कार खड़ी दिखी।रानी के बाबा सहम गए और सोचने लगे आखिर उनके घर में यह कौन आ गए।जैसे–तैसे डरते हुए घर में प्रवेश किया।
जो सज्जन बैठे थे उनको देखकर चौंक गए।"सेठ जी !सेठ जी !कहते हुए उसके चरणों में गिर गए।सेठ जी आप हमारे गरीब खाने में ?आपने मुझे बुला लिया होता न मैं स्वयं आपकी सेवा में हाजिर हो जाता।"
तब सेठ जी कहते हैं–
"अरे !नही–नही भाई !तुम तो मेरे घर रोज सेवा करने आते हो।आज रक्षाबंधन का पर्व है।इसलिए काम बंद है।आज मैं स्वयं तुम्हारे घर सेवा देने आ गया।तुम्हारे बच्चों के लिए कुछ सामान लाया हूं।" और बाबा को थमा देते हैं।संकोच करते हुए थैली को बाबा लेते है।एक कोने में रानी गुमसुम उदास बैठी थी।
बाबा ने थैली को टटोल कर जैसे ही सामान को बाहर निकाला हथेली में जगमगाती हुई राखियाँ और मिठाइयाँ झाँकने लगी।खुशी के मारे बाबा के मुंह से अचानक निकल गया–
"राखी !राखी !...... मिठाइयाँ !"
रानी ने जब यह सुना ,मुरझाया चेहरा फूलों की तरह खिल उठा।और राखी ! राखी !कहते हुए –
बाबा से लिपट जाती है।यह देख सेठ जी भाव–विभोर हो जाते हैं।
बाबा अपने सेठ जी को बार–बार धन्यवाद दे रहे थे,और रानी हाथों में राखी लेकर–"बहना ने भाई की कलाई पर" ...गाते हुए उछल रही थी।