प्रवास का दर्द
प्रवास का दर्द


इस शहर में हर शख्स परेशान सा क्यूं है
सीने में जलन, आंखों में तूफान सा क्यूं है।
इस शहर में हर शख्स परेशान सा क्यूं है।
दिल है तो धड़कनें का बहाना कोई ढूंढे।
पत्थर की तरह बे-हिस ओ बे-जान क्यूं है।
तन्हाई की ये कौन सी मंजिल है रफीको।
ता-हद्द-ए-हजर एक बयाबान सा क्यूं है।
हमने तो कोई बात नहीं निकाली गम की।
वो जूद-पशेमान पशेमान सा क्यूं है।
क्या कोई नई बात नजर आती है हम में।
आईना हमें देख के हैरान सा क्यूं है।
लुधियाना में कर्फ्यू में सवा महीने का वक्त काटने के बाद सोहन ट्रेन से घर आजमगढ़ को लौट रहा था तो मोबाइल पर शहरयार की यही नज्म सुन रहा था। गाना सुनते-सुनते बीते दस साल का वक्त उसकी आंखों के सामने फिल्म के रील की तरह घूम सा गया। मानो अभी कल की ही बात हो। वर्ष 2010 में तारीख नौ मई ही थी। वह कई अरमानों के साथ सरयू यमुना एक्सप्रेस से लुधियाना के लिए निकला था। गांव के लोग लुधियाना में ही रहते थे। कहते थे कि लुधियाना में पैसा उड़ता है। पकड़ने का हुनर चाहिए। जिसने यह हुनर जान लिया, वह रातों-रात अमीर बन गया। वे कई लोगों का उदाहरण भी देते थे। कहते थे कि लुधियाना में एक अलग ही उत्तर प्रदेश और बिहार बसा है। मैंने सुन रखा था कि पंजाब में दूध और दही की नदियां बहती हैं। खेतों में सरसों की धानी चुनरियां लहराती हैं।
कल्पनाओं के सागर में हिलोरे लेते हुए मैं लुधियाना पहुंचा। वहां पहुंचते ही मेरी कल्पनाओँ का संसार टूट गया। स्टेशन से उतर बाहर आया तो एक आम बड़े महानगर की तरह पास स्थित बाजार में ट्रैफिक जाम था। वाहनों की चिल्ल-पो हो रही थी। उसी बीच दुकानों के कर्मचारी चिल्ला-चिल्ला कर ग्राहकों को बुला रहे थे। किसी ने बताया कि इस बाजार का नाम चौड़ा बाजार है। वहां पर स्थित चौक पर एक बड़ी इमारत पर एक बड़ी घड़ी लगी हुई थी। पता चला है कि यह घंटाघर है। इसे अ
ंग्रेजों ने बनवाया था। वैसे हमने बनारस के भी घंटाघर चौक का नाम सुना था, लेकिन कभी देखा नहीं था। उसी के बगल में एक दूध व लस्सी की दुकान थी। यह वेरका की दुकान थी। यह वेरका क्या है, मैंने दुकानदार से पूछा। उसने मुझे हैरानी से देखा और फिर पूछा कि लगता है कि पहली बार पंजाब से आए हो। भईया हो। बिहार से आए हो कि यूपी से।
मैंने कहा कि यूपी से। मैं मन ही मन में बहुत खुश था। उसने मुझे भईया कहा। कितनी इज्जत है यूपी और बिहार वालों की। मैं कल्पनाओँ में ही महलनुमा घर में पहुंच गया। देखा कि वहां पैसे ही पैसे थे। हवा में नोट उड़ रहे थे। अभी मैं कल्पनाओँ में ही खोया था कि किसी ने कसकर मुझे झिंझोड़ा। आंख खुली तो सामने मामा के बेटे चंद्रमोहन थे। मैंने ट्रेन से उतरते ही उन्हें फोन कर दिया था। उन्होंने कहा कि घर चलना नहीं है क्या। वह बाइक से आए थे। वह हमको ग्यासपुरा के पीपल चौक पर लाए। वहां किसी भोजपुरी गायक मुकेश कुमार के जागरण का पोस्टर लगा हुआ था। हमने भाई से पूछा कि ई जागरण का होता है। उसने बताया कि गायक और उनकी पार्टी आती है। उससे पहले लंगर यानी भंडारा लगता है। लोग भक्ति गीतों पर पैसा न्योछावर कर गायकों का उत्साह बढ़ाते हैं। हमने कहा कि ऐसा है। भाई ने कहा ऐसा ही है। यह सुनते ही मुझे लगा कि सामने नोटों की बारिश हो रही है। मैं उनको पकड़-पकड़ कर बैग में भर रहा हूं। रास्ते में एक-दो जगह सड़क टूटी थी और पानी भरा हुआ था। बाइक फिसलते-फिसलते बची। किसी तरह बचते-बचाते हम घर पहुंचे। घक से पहले ही सड़क पर दो फुट तक नाली का पानी भरा था। इतनी बदबू की नाक फट जा रही थी। थोड़ी ही दूर पर कूड़े का ढेर लगा हुआ था। उस पर मक्खियां भिनभिना रही थी। कुछ आवारा जानवर उस पर मुंह मार रहे थे। वहां खड़े कुत्ते तेज-तेज से भौंक भी रहे थे। मैंने पूछा, भाई आप ऐसी जगह रहते थे। इससे साफ तो हमारा गांव रहता है। भाई ने झेंपते हुए कहा कि नहीं सफाई तो यहां भी होती है। आजकल सफाई कर्मचारी हड़ताल पर गए हैं। इसलिए सफाई नहीं हो रही है। नाक मूंद कर सड़क के बीच में रखी ईंटों और पत्थर पर होते हुए मैं किसी तरह घर पहुंचा। अंदर आकर राहत की सांस ली। क्रमश: