Yogesh Kanava

Others

4.5  

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नीचिया की लुगाई और कजली

नीचिया की लुगाई और कजली

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सरकारी काम से भावेश को राजकोट के दूरदराज के गांवों में कार्य प्रगति को देखने के लिए जाना पड़ा । सरकारी गाड़ी थी, ड्राइवर था लेकिन न जाने क्यों भावेश एक दम अकेला सा महसूस कर रहा था शायद जयन्त की कमी उसे खल रही थी । लेकिन मजबूरी थी कि दोनो मे से एक ही दौरे पर जा सकता था और बाॅस चाहते थे कि भावेश अकेला ही जाए । सो राजकोट से कोई डेड सौ किलोमीटर दूरपहली बार अकेले ही गांव रजवाड़ी, बागडा और भी न जाने आसपास के कोई पचासों गांवों का तीन दिन में दौरा करना था । ढेठ गुजराती बोली जो भावेश के लिए थोड़ी सी मुशिकल जान पड़ती थी, वो ठहरा ठेठ राजस्थान का और यहां राजकोट से अलग ठेठ आंचलिक गुजराती बोली । खैर एक चाय के खोखे के पास भावेश ने ड्राइवर को रोकने के लिए कहा । गाड़ी एक झटके के साथ ही रेतीली पगडण्डी पर रूक गयी । कोई इक्का दुक्का लोग आ जा रहे थे । दूर कोई दो आदमी प्रधानमंत्री राष्ट्रीय स्वच्छता कार्यक्रम को चुनौती देते सरकार के ओ डी एफ को ठेंगा दिखाते से अपनी नाक भेंह सिकोड़ते से भावेश बोली " इस गांव में स्वच्छता की ऐसी स्थिति ? फिर कैसे पूरे हांेगे लक्ष्य और कैसे होगी स्वच्छता इस देश में ।

भावेश की इस बात का जवाब ड्राइवर के बजाय चाय वाले ने दिया , ड्राइवर की बोली से लगा शायद वो गुजराती सीमावर्ती राजस्थान के किसी गाँव का रहने वाला है ।

"साहब हमारे गांव मे तो ऐसे ही रहते हैं सब । अब आप ठहरे शहर के सो आपको बुरा लगता है हम तो किसी भी झाड़ी की ओट में सुबह सुबह ही । " " " " क्या हुआ कभी किसी को दिन में हाजत हो जाए तो बस फिर ऐसे ही चलता है ।

"तो इस गांव में शौचालय नहीं है ।

"अरे साब शौचालय तो म्हारे सरपंच साब के घर है पण सूगलवाड़ो ही है सा । सारा कुटुम्ब को मैला वा है नी नीचिया हरिजन की लुगाई माथे परां लेकर जाती साब । इससे तो अच्छा है ना खुद ही बाहर जाकर आ जाओ ।"

"मैं समझा नहीं"

ड्राइवर ने बताया कि अभी इस गांव मे मैला सिर पर ढोने की परम्परा है ।"

"क्या आज भी । यहाँ पर ‘शौचालय नही बने हैं अभी तक लेकिन हमारी रिपोर्ट के हिसाब से होने चाहिए । वो समझ गया कि पेश की गई रिपार्ट झूठी हैं।

"जी साब

चाय वाले के इतना कहने पर वो न जाने किन ख्यालों में खो गया " अपनी पुरानी यादों में । हायर सैकण्डरी पास करते ही गांव से शहर जाना पड़ा था मुझको । अलवर के राजऋषि कालेज मे दाखिला ले लिया था । जाति से दलित होने के कारण आसानी से कमरा किराए पर मिलना मुश्किल था । गांव के एक और लड़के ने बताया कि लाल डिग्गी के सामने वो गढ़वाली ठाकुर किराए पर दे सकता है मकान ।

दुबला पतला सा मै चेहरे पर अभी नयी नयी आई मूंछों की कालिमा उभर रही थी ठुड्डी पर एक आध बाल भी आ गए थे । कुल मिलाकर किशोरावस्था से गुजरता सा, गढवाली ठाकुर के घर पहुँचकर लोहे के गेट को बजाया । एक वृद्धा निकल कर बाहर आयी शायद ठाकुर की घरवाली होगी पूछा "

"क्या है ?

"वो कमरा पूछने आए थे चाची जी" 

"कितने लड़के हो"

"जी दो"

"अलग "अलग कमरे मिलेंगे, एक साथ एक कमरे में नहीं ।"

"जी चाचाजी किराया कितना होगा"

" महिने मे बिजली का दो रूपया, पानी का एक रूपया, लेट्रन का दो रूपया और । ये तो हुए पाँच रूपए अलग से और पन्द्रह रूपए कमरा किराया महिने का कुल बीस रूपए । समझ गए । मुझे लगा साला पानी बिजली का इतना और हगने का दो रूपया ,वो तो बाहर ही बोतल लेकर चले जाएंगे । सो बोला "

"वो लेट्रिन का रूपया"

"हांँ खाओगे तो हंगोगे नहीं, वो कहां जाओगे । ए छोकरा गांव नही है शहर है ये , समझा और हांँ एक बात और छोकरा, कोई भी फालतू लोग नहीं आने वाहिए, लड़की तो बिल्कुल नहीं ।"

"जी चाचीजी "

लगा बुढि़या कड़क है । उसने धीरे से कहा वो हमारी जाति

"सुन ! हमे जाति से कोई लेना देना नहीं है बस घर की तरह से ढंग से रहना समझा ।"

वो बस इतना ही बोला था

"जी"

"कब से आओगे?" 

"जी आज ही शाम को आजाएं आप कहें तो"

"हांँ ठीक है आ जाना लेकिन थोड़ा सा एडवांस देना पड़ेगा ।"

"जी कितना दे दूँ"

"दस रूपया दे दो बाकी महिना पूरा होने पर दे देना । अच्छा कहांँ के हो?"

"जी जयपुर के पास ही गाँंव है "

"तो अलवर क्यों"

बस ये यहीं था इसके साथ ही आ गया ।


सचमुच उसी शाम अपना सामान उठा लाया था ठाकुर के घर पर । गेट मे घुसते ही पहला कमरा मुझे दिया था उसने । सामान भी क्या था एक पतला सा गददा , एक चददर, तकिया, एक स्टोव, केरोसीन की पीपी, तवा, चिमटा, एक भगोनी, चकला बेलन और किताबें ,बस कुल जमा इतना सा ही सामान । रसोई का सामान तो एक पीपे में भरकर लाया था जिसमे आटा भी था । धीरे "धीरे सामान खोला था और शाम का खाने का जुगाड़ की सोच ही रहा था तभी वो ही बुढि़या आ गयी बोली "

"अरे लड़के सुन तेरा नाम क्या है ?"

"जी भावेश"

"अच्छा ये ले रोटी मत बनाना, अभी क्या रोटी बनाएगा आज तू ये खा ले ।" उसने एक कटोरी सब्जी और तीन रोटियां दी थी मैने खाना खाकर बरतन साफ करके लौटा दिए थे । सुबह उसे हाजत हुई तो उसने पूछा था । ठाकुर ने एक कोने की ओर इशारा कर दिया था । कच्ची लेट्रिन थी, एक कातला फर्श की जगह था जिसमे बीच मे एक बड़ा सा छेद किया गया था । पैर रखने के लिए सीमेन्ट से दो पायदान बनाए गए थे । अन्दर जाते ही उबकाई के साथ ही हालत खराब हो गई । तुरन्त बाहर आ गया था मैं । आज भी याद है मुझे वो क्षण मै जब नाक मुंह बांधकर गया था उस कच्ची लेट्रीन मे पहले दिन । धीरे "धीरे यही क्रम रोजाना का था जो सबसे कष्टकारक था । धीर धीरे वो उस मकान माल्किन को चाचीजी की जगह आंटी जी, उसके बेटे की बहू को भाभी कहने लगा था । ठाकुर की दो सुन्दर सी लड़कियां भी थी । सुरभी और उरमी । सुरभी बड़ी थी और उरमी भावेश की समवयस्क । उरमी थोड़ी सी चुलबुली भी थी । पहले दिन जो सबसे आश्चर्यजनक बात थी जो मैने अपने गाँव मे नहीं देखी थी वो ये कि एक सफाई वाली औरत तरछला और एक खुरपीनुमा बड़ा सा औज+ार लेकर आई वो सारा मल तरछले मे भरा सिर पर ऊंचा और ले गई । कोई तीन चक्कर किए थे उसने उस दिन । पूरे पन्द्रह रूपए मिलते थे महिने के उसे इस काम के और साथ ही दो रोटी भी रोजाना की । पन्द्रह मे से ठाकुर दस रूपये तो हम पांच लड़कों से ही वसूल कर लेता था बाकी घर के पांच लोगों के पांच रूपये कुल मिलाकर पन्द्रह रूपये । उस जमादारिन का नाम भी पता चल गया था । कजली था उसका नाम कोई बाइस बरस की रही होगी । एक दम गोरी चिट्टी, भरा हुआ शरीर और साथ ही कोई दो तीन साल का एक लड़का उसका ।

रोजाना का यही क्रम था वो कोई नो बजे के आस पास आती थी । एक दिन आंटी जी की बातों से पता चला कि उसका मरद दिल्ली म्यूनिसिपिलिटी में सफाई कर्मचारी था । एक बार कोई सीवर लाइन रूक गई थी वो उसकी सफाई के लिए नीचे उतरा लेकिन वापस आ नहीं पाया । सीवर की जहरीली गैस उसका जीवन निगल गयी थी । जब वो मरा था उस वक्त कजली पेट से थी । तीन बरस हो गए उसके मरद को मरे फिर दूसरी शादी क्यों नहीं की थी उसने । आंटी जी के इस सवाल पर वो बोली थी " मालकिन वो साठ रूपए महिने की उसकी पेन्शन मिल जाती है । अब मैं घर बसा लेती तो वो साठ रूपए भी जाते और कौन जाने इस लल्ला को बाप सही मिल पाए कि नहीं । 

"हां वो तो है, ठकुराइन बोली थी । 

अभी कुछ ही दिन निकले थे कि सामने वाले शर्मा जी के घर बड़ी ही तेज आवाजे आ रही थी । कजली जोर से बोल रही था, शर्मा जी उसे डांट रहे थे । शर्मा जी का लड़का बोल रहा था कि वो झूठा आरोप लगा रही है कि उसने कजली के साथ गलत हरकत की है । कजली बोल रही थी कि आज सुबह जब वो काम से निपट कर रोटी लेने आई थी तो घर पर शर्मा जी का लड़का अकेला ही था उसने मुझे अन्दर खींचकर खोटा काम किया । मामला बिगड़ता देखकर शर्मा जी ने अपने लड़के को डांट लगाई । तेरे को ये ही मिली थी नालायक कहीं का, और हाँ तू सुन  " ये तो रीत चली आई है तेरे क्या फर्क पड़ गया अगर लड़के ने कुछ कर लिया तो चुपचाप बैठ जा । तेरे को तो खुश होना चाहिए कि कोई ब्राह्मण लड़के का मन तेरे ऊपर आ गया । वैसे भी तुम लोगों में जो गोरे चिट्ठे लड़के लड़कियां पैदा होते हैं वो हमारी ही तो उपज है । क्या फर्क पड़ गया जो और एक गोरा चिट्टा बच्चा तेरे भी हो जाएगा तो । इतना सुनते ही वो एकदम से शान्त होकर बोली 

" बोली मालिक आप ठीक कह रहे हो हम लोगों के गोरे चिट्टे आप लोगों से ही हैं लेकिन आप लोगों मे जो काले मानुस हैं वो फिर तो हमारे मरदों से हुए होंगे । इतना कहा और वो कजली चली गई थी । उसकी बात सुनकर शर्मा जी की बोलती बन्द हो गयी थी । मैं सोच रहा था क्या जीवन है पूरी जिन्दगी इन लोगों कीटट्टी सिर पर उठाओ और उसी मे डूब कर मर जाओ । इतना नारकीय जीवन । उफ् उस पर सवर्णो की बुरी नजर इन लोगों का जब भी जी करे तो इनकी हवस के शिकार  बनो , खरी खोटी सुनो इनकी ,उफ ये यौन उत्पीड़न, वो तो झेलना ही शायद इनकी नियती है । मनोभावों को उस वक्त काबू मे कर मैं कालेज चल दिया था ।

अचानक ही चाय वाले की आवाज से मैं चैंक पड़ा था "अरे साब कठै हो, कांई सो गया कॉइन , लागै थाकग्या आप। हुकुम एक चाय और ले अर आंऊं ।"

मेरे मुं ह से अचानक ही निकला "हां"

वो चाय ले आया था, चाय की चुस्कियों के साथ ही मै वहां की भौगोलिक, सामाजिक स्थिति की जानकारी लेने लगा था उस चायवाले से । मैं भी गाँव से था लेकिन इतना नारकीय जीवन मैने कभी नहीं देखा था ।

अपना दौरा पूरा करके आज वापस आ गया था भावेश । उसके चेहरे से लग रहा था कि काफी थक गया था । जयन्त ने आज एक छोटी से दारू पार्टी की योजना बना ली थी भावेश के आने की खुशी में ।" जयन्त बोला था ।

"जिग्नेश को भी बुला लो वो अपनी फण्टी को ले आएगा साथ ।"

"नही भाई अच्छा नहीं है ये सब बस दोनो यार रहेंगे तीसरा कोई नहीं । हां चिली पनीर और वेज कोरमा जरूर ले आते हैं रोटियाँ बाद में खुद ही बनाएगें । जिग्नेश बोला था नहीं यार रोटी भी वहीं से लाएगें ।"

"दोनो ही साथ निकल गए अपनी पार्टी के इंतज़ाम में । इधर भावेश की थकान के बारे में जयन्त ने पूछा तो वो टाल गया था। वो क्या बताता कि थकान शारीरिक कम है और दिमागी ज्+यादा है । दलित होने की पीड़ा फिर अपनी आंखों से देखी है । फिर वो चाहे नीचिया हरिजन की लुगाई हो या पैंतीस बरस पहले अलवर की कजली । क्या अन्तर है ,वही जीवन, वही नारकीय कष्ट और वही ग+रीबी, वही मानसिक और दैहिक शोषण । देश भले ही आज़ाद हो गया हो कितना ही आगे बढ़ जाएं लेकिन हमारी सोच जातिगत संकीर्णताएं और भावनाएं नहीं मिटा पाए हम आज़ादी के इतने बरसों के बाद भी । भावे’ा अपने मे खोया सा और जयन्त अपनी मस्ती में चलता सा ।

दोनो एक दूसरे को छेड़ते से बस चलते जा रहे थे आज रात की पार्टी के इंतज़ाम के लिए।



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