Charumati Ramdas

Children Stories Tragedy Children

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Charumati Ramdas

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मेरा दोस्त भालू

मेरा दोस्त भालू

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लेखक: विक्टर द्रागून्स्की

अनुवाद: आ. चारुमति रामदास  

एक बार मैं क्रिसमस ट्री सेलेब्रेशन के लिए सोकोल्निकी गया. हम सब को नीले कार्डबोर्ड के डिब्बे जैसा एक एक टिकट दिया गया था, वह छोटी सी किताब की तरह मुड़ा हुआ था, और कवर-पेज पर सुनहरे अक्षरों में चमचमा रहा था: “हैपी न्यू इयर!” और, जब टिकट खुलता, तो उसके पन्नों के बीच फ़ट् से एक सजी-धजी क्रिसमस ट्री खड़ी हो जाती, और उसके चारों ओर गरम कोट और लम्बे-लम्बे कानों वाली टोपियाँ पहने कई जानवर, जैसे ख़रगोश और लोमड़ियाँ, पिछले पैरों पर खड़े हो जाते. ये बहुत बढ़िया बनाया गया था, और, सिर्फ इस टिकट के कारण मैंने फ़ौरन उनके पास सोकोल्निकी जाने का प्लान बना लिया. मैं ये देखना चाहता था कि उन्होंने वहाँ लड़कों के लिए और क्या क्या बनाया है. इससे पहले मैं सिर्फ अपने स्कूल की क्रिसमस ट्री पर जाता था या घर की क्रिसमस ट्री सजाता. इन क्रिसमस-ट्रीज़ पर बेहद मज़ा आता था, मगर उनमें जानवर नहीं होते थे. ऐसे वाले नहीं. इसलिए मैंने सोचा कि सोकोल्निकी ज़रूर जाऊँगा. मैं निकल पड़ा. हालाँकि टिकट पर लिखा था “आरंभ – ठीक 2 बजे”, फिर भी मैं ढ़ाई बजे पहुँचा, क्योंकि मुझे देर हो गई थी. हर मज़ेदार मौक़े पर मैं लेट ही हो जाता हूँ, - कुछ न कुछ हो ही जाता है. एक बार थियेटर पहुँचा, और स्टेज पर किसी लड़के ने एक सफ़ेद बालों वाली लड़की को ‘किस’ किया, तभी सब लोगों ने तालियाँ बजाईं और चिल्लाने लगे “ब्रेवो”, “वन्स मोर”. अब छत के नीचे लाइट कौंधी, और ये लड़का और उसकी लड़की इस तरह झुक-झुक कर पब्लिक का अभिवादन करने लगे, जैसे उन्होंने कोई चमत्कार कर दिया हो. और भी कई बार मैं लेट हो गया था. मुझे याद है, कि एक बार मम्मा ने केक बनाया और बोली:

 “आधा घण्टा घूम ले और जल्दी से आ जा, केक है!”

मैंने और मीश्का ने कम्पाऊण्ड में हॉकी की प्रैक्टिस की, और मैं फ़ौरन घर आ गया, मगर हमारा घर मेहमानों से भरा था, और मम्मा ने कहा:

 “देर कर दी, भाई! तुम्हारी केक हम खा गए! किचन में जा!”

मैं किचन में गया, वहाँ मुझे जैली और सूप दिया गया. केक के बदले ये क्या है? कोई मुक़ाबला ही नहीं है.

इस बार भी, हालाँकि मैं सात बजे उठ गया, मगर बेकार के काम करता रहा और क्रिसमस ट्री पर लेट हो गया.

सोकोल्निकी में इत्ती भीड थी! चारों ओर मुर्गियों के पैरों पर छोटे-छोटे घर बने थे, जैसे बाबा-ईगा का घर होता है, और मज़ेदार, बर्ड-हाऊस जैसे, चटखदार रंग में रंगे, सजे हुए और दोस्ताना घर. उनमें किताबें, मिठाइयाँ, डोनट्स या पैनकेक्स बेच रहे थे. सोकोल्निकी में बर्फ़ से बनी हुई बड़ी-बड़ी आकृतियाँ, ख़ूबसूरत घोड़े, डराने वाले ड्रैगन्स भी थे, और था एक मरा हुआ सिर, जिससे लड़ रहा था अविजित रुस्लान. तैंतीस भीमकाय हीरो बनाए गए थे, और हँस-राजकुमारी थी, स्पेस-शिप, ऐसा लगता था कि इन आकृतियों और प्रदर्शनियों का कोई अंत ही नहीं था, मैं एक आकृति से दूसरी की ओर जा रहा था, मुझे बहुत मज़ेदार लग रहा था, क्योंकि मैं भी आकृतियाँ बनाता हूँ, इसलिए इस बर्फीली खूबसूरती से दूर नहीं हट सका और एक एक क़दम बढ़ाते बढ़ाते मैंने इस बात पर ग़ौर ही नहीं किया कि मैं लोगों से दूर इस वीथी पर बने जंगल में चला आया हूँ, मैंने इस बात पर भी ध्यान नहीं दिया कि रास्ता बार-बार मुड़ रहा था और लूप बना रहा था, और कुछ आकृतियाँ क़तार में नहीं, बल्कि कहीं बीच में रखी थीं, और मैं धीरे-धीरे थोड़ा सा भटक गया था.

इस समय आसमान से बर्फ गिरना शुरू हो गई, चारों ओर अंधेरा छाने लगा, और मुझे ऐसा लगा कि अगर मैं इन बर्फ़ के टीलों के क़रीब से इसी रास्ते से वापस जाऊँगा, तो काफ़ी समय लग जाएगा. मैंने छोटे रास्ते से जाने का फ़ैसला किया और सीधे, जंगल के बीच से, होकर जाने लगा, क्योंकि मुझे क़रीब-क़रीब ये तो पता था कि क्रिसमस ट्री कहाँ है. मुझे याद था कि मैं कहाँ से आया था, इसलिए मैं काफ़ी ख़ुश-ख़ुश वापस संकरी, बर्फ़ से ढंकी पगडंडी पर भागने लगा. वो भी चारों ओर जा रही थी: दाएँ, बाएँ, और हर तरफ़, और रास्ते के ऐसे हिस्से भी थे कि कह नहीं सकते थे कि मेट्रो कहाँ है, बड़ी क्रिसमस-ट्री कहाँ है और लोग कहाँ हैं.

इस तरह मैं काफ़ी देर तक भागता रहा और थकने लगा, परेशान भी होने लगा, मगर अचानक पास ही में मुझे एक सजा हुआ घर दिखाई दिया और मैं फ़ौरन शांत हो गया. इस घर की खिड़की में रोशनी नज़र आ रही थी, मुझे थोड़ी ख़ुशी हुई, और मैं सीधे सामने की ओर उछलने लगा, मगर मैं कुछ ही बार उछला होऊँगा, कि सामने खड़े एक मोटे चीड़ के पेड़ के पीछे से पगड़ण्डी पर एक भारी-भरकम भालू तैश में उछलकर सीधा मेरे सामने कूदा. हॉरिबल! वो गरजा और सीधा मुझ पर झपटा. मेरा तो कलेजा जैसे फट गया. मैं चिल्लाना चाहता था, मगर चिल्ला नहीं पाया. ज़बान चल ही नहीं रही थी. गला एकदम सूख गया. मैं जैसे ज़मीन में गड़ गया और मैंने हाथ ऊपर उठा दिए, मैं मुड़कर वापस भाग जाना चाहता था, मगर मुझे याद आया कि भालू अपने शिकार को शैतानी स्पीड से पकड़ लेता है, और अगर मैं उससे दूर भागूँगा, तो, हो सकता है कि उसे और गुस्सा आ जाए, और तब वह शायद तीन ही छलांगों में मुझे दबोच लेगा और मेरे टुकड़े- टुकड़े कर देगा! मैं ऐसा सोच रहा था, और भालू सीधा मेरे पास आया. वो इंजिन की तरह भक्-भक् कर रहा था, गरज रहा था और पंजे हिला रहा था, और मुझे याद आया कि मैंने पढ़ा था, कि अगर भालू के सामने पड़ जाओ तो अपने आप को कैसे बचाना चाहिए. ऐसा दिखाना चाहिए कि तुम मुर्दा हो, वो मुर्दों को नहीं खाता है! और पलक झपकते ही मैं ज़मीन पर गिर पड़ा और आँखें बन्द कर लीं, साँस रोकने की कोशिश करने लगा, मगर फिर भी साँस तो मैं ले ही रहा था, क्योंकि ये सब दौड़ने की वजह से हुआ था, और मेरा पेट धौंकनी की तरह चल रहा था. मैंने सुना कि भालू मेरे पास भागते हुए आ रहा है, और मैंने सोचा: “हो गया! अब मेरे टुकड़े-टुकड़े हो जाएँगे!” मगर वह मेरे नज़दीक नहीं आया...

और इस एक सेकण्ड में मैंने इतना कुछ सोचा, अपने आप से वो बुदबुदाता रहा!...

इस बारे में किसी को नहीं बताऊँगा. कभी भी नहीं और किसी को भी नहीं. मगर फिर उत्सुकता मुझे बेचैन करने लगी. मैंनो सोचा: ‘ताज्जुब है, आख़िर भालू बच्चे को उठाता कैसे होगा? इस बारे में तो सिर्फ किताबों में पढ़ते हो, मगर सचमुच में देखने का मौका फिर कभी नहीं मिलेगा.’ और, मैंने धीरे धीरे अपनी बाईं आँख खोलना शुरू किया. वो मुश्किल से खुल रही थी, क्योंकि या तो डर लग रहा था, या पलकें कसके चिपक गई थीं, पता नहीं, मगर कोशिश करके आँख को खोल ही लिया. देखता क्या हूँ, कि भालू मेरे ऊपर खड़ा है, पिछले ही पैरों पर, और उसके चेहरे पर ऐसे भाव हैं, जैसे उसे मालूम ही न हो कि अब क्या करे. और मेरे दिमाग़ में फिर से बिजली की तरह एक ख़याल कौंध गया. मुझे अपने आप को बचाने का एक और उपाय याद आ गया. भालू बहुत डरपोक होता है, और किसी भी तरह उसे डराने की कोशिश करनी चाहिए. हो सकता है, कि मुझे ज़ोर से चिल्लाना चाहिए? और मैंने बेवकूफ़-इवान वाली कहानी की तरह फ़ौरन सोच लिया:

 ‘जो होना है, हो! दो बार मरेगा नहीं, एक से बचेगा नहीं!’

और मैं ख़ौफ़नाक आवाज़ में चिल्लाया:

 “ भा s s ग यहाँ से!”

भालू थरथराया और एक ओर को हट गया. वह मुझसे यूँ छिटक गया, जैसे उसे बिजली का शॉक लगा हो. और, जब वो उछला, तो रुका नहीं और मुझसे दूर भागने लगा. वह बड़ी तेज़ी से भाग रहा था और चारों पैरों पर खड़ा नहीं हो रहा था, शायद, बेहद डर गया था और दुनिया की हर चीज़ के बारे में भूल गया था. और मैंने क़रीब दो किलो का बर्फ का गोला उठाया, जो मेरे पास ही पड़ा था, और ऐसे उसकी तरफ़ फेंका, जिससे वह, मतलब, और भी तेज़ी से मुझसे दूर भागे, और समझ जाए कि मेरे साथ मज़ाक करना महंगा पड़ सकता है! ये बर्फ़ का टुकड़ा ठीक उसके सिर पे लगा. टक्! इससे बेहतर हो ही नहीं सकता था. इस मार से भालू लड़खड़ा भी गया. और तभी एक आश्चर्य हुआ!

भालू अचानक रुक गया, मेरी तरफ़ मुड़ा और बोला:

 “बच्चे, बदमाशी न कर!”

 मैं इतना डरा हुआ और उत्तेजित था, कि फ़ौरन इतना भी न समझ पाया कि दुनिया में ऐसा नहीं होता है कि भालू इन्सान की तरह बात करे, मैंने उससे कहा:

 “आप ख़ुद ही बदमाशी न करें! ख़ुद ही तो मुझे खा जाना चाहते थे!”

अब उसने कहा:

 “तू क्या कह रहा है? आर यू सीरियस? तू मुझसे डर गया? कहीं तूने ये तो नहीं सोच लिया कि मैं असली भालू हूँ? डर मत, डर मत, मैं भालू नहीं हूँ! मैं आर्टिस्ट हूँ! समझा? मैं तो तुझसे मज़ाक करना चाहता था, मगर तू बेहोश हो गया...आर्टिस्ट हूँ...”

मेरे दिल से एकदम बोझ उतर गया...मैं हँसने लगा. वाक़ई में, मैं भी कितना बेवकूफ़ हूँ! मैं ये भी भूल गया कि क्रिसमस-ट्री के प्रोग्राम में आर्टिस्ट अक्सर भालू की पोषाक पहन लेते हैं, जिससे बच्चों का मनोरंजन करें, और ये, ज़ाहिर था, कि वो ऐसा ही आर्टिस्ट था. मैं शांत हो गया और बोला:

 “और साबित कैसे करोगे?”

उसने कहा:

 “ये देख.”

उसने अपना सिर उतारा. जैसे लकड़ी के खंभे से घड़ा. जैसे टोपी. बस, उतार दिया. बेहद ख़ूबसूरत था सिर, बड़े बड़े दांत और चमकदार-लाल जीभ वाला. रोंएदार, और आँखें चमकदार. आर्टिस्ट ने उसे अपने फ़ैले हुए हाथों पर रखा और बोला:

 “चल, ये ले! पकड़, डर मत. मैं कुछ देर ताज़ी हवा में सांस ले लूँ, कुछ देर सुस्ता लूँ. बेहद भारी है. और तू आराम से चक्कर खा गया, ये तो अच्छा हुआ, कि ये मेरा नहीं है, और अगर ये असली होता तो, क्या होता, आँ?” 

और वह अपना असली सिर घुमाने लगा. असली वाला बड़ा बेडौल था. गंजा. गोल-गोल दयनीय आँखें...

तो, ऐसा भी होता है. अभी अभी तो मैं डर के मारे मरा जा रहा था, और अब बगल में, ख़रबूज़े की तरह. भालू का सिर दबाए खड़ा हूँ, और इस डरावने सिर का मालिक एक आर्टिस्ट है. मेरा मुँह खुला था, मगर आर्टिस्ट मेरी ओर देखकर मुस्कुराया. फिर वह थोड़ा सा कँपकँपाया और बोला:

 “दिल में दर्द होता है...मुझे उत्तेजित नहीं होना चाहिए. और भागना नहीं चाहिए. चल, मुझे छोड़ दे.”

उसने मेरी ओर पंजा, मतलब हाथ बढ़ाया, और हम उस घर की तरफ़ बढ़े जो पास ही में था. मैं इसी घर की तरफ़ कुछ देर पहले भाग कर आया था. हम पहुँचने ही वाले थे, कि अचानक झाड़ी में से एक जोकर उछलकर बाहर आया और मुझे भालू के साथ देखकर चिल्लाने लगा:

”अव्राशोव, ये क्या है? आप कहाँ हैं? देर हो रही है! जल्दी करो, हमें अभी बुक्स-सिटी के पास डान्स करना है.”

 “क्या?” आर्टिस्ट-भालू चीख़ा. “और डान्स करना है? मैं आज पाँच बार डान्स कर चुका हूँ! मेरे लिए इतना ही बहुत है!...क्या सब लोगों का दिमाग़ चल गया है?”

“गुसाझिन ने कहा है,” जोकर ने कहा, “उसका आइडिया है. हमें लोगों को हँसाना होगा. चल, भागें!”

 “मेरे दिल में दर्द है,” आर्टिस्ट-भालू ने कहा, “और, गोशा, तुम हो कि ‘भागें!’.

“धीरे धीरे जाएँगे. चल, बच्चे,” उसने मुझसे कहा, “मुझे मेरा सिर दे दे, कुछ नहीं किया जा सकता.” उसने एक बार फिर अपनी दयनीय आँखों से मेरी तरफ़ देखा और मुँह टेढ़ा करके मुस्कुराया: “तो, थके हुए बूढ़े, चल अपना अपना शेक्सपियर खोजें!” 

मैं कुछ भी नहीं समझ पाया. कैसा थका हुआ बूढ़ा? कौन थका हुआ बूढ़ा? कहाँ? मगर अभी इसके लिए वक़्त नहीं था और मैंने उसे भालू का सिर पहनने में मदद की.

उसने अपने नाख़ूनों वाले पंजों से मुझसे हाथ मिलाया.

 “उधर जा,” उसने एक तरफ़ इशारा करते हुए कहा, “अभी मैं वहाँ डान्स करने वाला हूँ.”

और मैं उस तरफ़ चल पड़ा, जहाँ उसने इशारा किया था, और जल्दी ही वहाँ पहुँच गया, वहाँ कई सारे आर्टिस्ट्स थे, वे सवाल पूछ रहे थे, और बच्चे तुकबन्दी में जवाब दे रहे थे. ये ‘बोरिंग’ था, मगर अचानक जोकर प्रकट हुआ. वह एक तांबे का बर्तन बजा रहा था, और उसके पीछे पीछे मेरा दोस्त भालू लड़खड़ाते हुए चल रहा था. जोकर रो रहा था, और छींक रहा था, और जादू दिखा रहा था, और फिर उसने जेब से एक छोटा सा बाजा निकाला और उस पर ऊँगलियाँ फेरने लगा. और भालू ने अपनी जगह पर पैर से ताल देना शुरू कर दिया, और, आख़िर में, ज़ाहिर है, वह जोश में आकर डान्स करने लगा. वह ठीक-ठाक ही डान्स कर रहा था, और मुड़ रहा था, झुक रहा था, और गरज रहा था, और बच्चों की ओर लपक रहा था, और वे, हँसते हुए पीछे की ओर उछल रहे थे. उसने कई बार हँसाने वाले कारनामे किए, ये सब बड़ी देर तक चलता रहा. मैं एक ओर खड़ा होकर इंतज़ार कर रहा था, कि उसका प्रोग्राम कब ख़तम होता है, क्योंकि, चाहे जो भी हो जाए, मुझे एक बार फिर उसका इन्सानी चेहरा, उसकी दयनीय थकी हुई गोल-गोल आँखें देखना था.


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