खामोश डंडा
खामोश डंडा
बीस वर्ष पश्चात कामकाज के सिलसिले में अपने गाँव में जाने का सुअवसर प्राप्त हुआ। हम सभी भाई बहन पढ़ लिख कर उच्च पद पर आसीन हो गए तथा शहर में बस गए। माता पिता को भी साथ ले आए। गाँव तथा उसकी मिट्टी को लगभग भूल ही चुके थे। आज गाँव की यादें ज़हन में ताजा होने लगीं। यादों में सबसे ज्यादा मुझे मेरे स्कूल तथा स्कूल की आन बान शान मेरी शिक्षा की नींव को मजबूत करने वाले विद्या दान की साक्षात मूर्ति रोबीला व्यक्तित्व लंबा गठीला बदन अनुशासन प्रिय तथा व्यक्तित्व ऐसा कि कोई भी प्रभावित हुए बिना नहीं रह सकता था, मास्टर शास्त्री जी की बहुत याद आई। स्कूल समय में उनके हाथ में हमेशा बेंत का डंडा रहता था। सभी छात्र उनसे अत्याधिक डरते थे। उनका रोम रोम विद्या पर न्योछावर था। उन्होंने इस देश के लिए ना जाने कितने अनमोल मोती तैयार किए हैं। भले ही वह ऊपर से कठोर थे लेकिन दिल के बहुत ही कोमल और भावुक इंसान थे। गाँव में पहुँच कर मेरे कदम यक ब यक गुरू जी के दर्शनों को चल दिए। गुरुजी को सामने पाकर मैंने सष्टांग दंडवत प्रणाम किया। आज मैं जो भी हूँ आदरणीय आपकी कृपा दृष्टि से हूँ। उन्होंने मेरा आलिंगन लिया। लेकिन उनके व्यक्तित्व को देखकर मैं बहुत ही परेशान हुआ। एकदम से बुझे बुझे। वह रोबीलापन और कड़कपन ना जाने कहाँ ग़ायब हो चुका था। हाथों में डंडे की जगह चश्मा और पेन रह गए थे। मेरे से रहा नहीं गया कारण पूछ बैठा। वह हताश होते हुए बोले बेटा जो डंडा मास्टर जी की पहचान हुआ करता था। वह अब मीडिया की शान है। जो शिष्य गुरु दक्षिणा में अंगूठा काटा करते थे वह आजकल गुरुओं की गर्दन काटते हैं। उन्होंने ठंडी सांस छोड़ते हुए बोला खामोश डंडे के साथ ही गुरु शिष्य की परंपरा भी खामोश हो गई। मैं बोझिल मन से गाँव से विदा हो गया।
