STORYMIRROR

Prafulla Kumar Tripathi

Others

2  

Prafulla Kumar Tripathi

Others

हम , तो बस अहम हैं !

हम , तो बस अहम हैं !

5 mins
234

सब कुछ भाग्य ही तय करता है। आपको कब कहाँ, किससे मिलना और बिछड़ना है ... यह भी ! इसीलिए तो कुमार साहब को अपने जीवन का उत्तरार्ध काल उस नाज़ुक शरीफ़ और "पहले आप " की किंवदंती से मशहूर शहर में बिताना पड़ रहा है ! चौंतीस साल तक सेवा के दौरान देश के कोने - कोने में उनका स्थानान्तरण होता रहा। उनकी पत्नी की ज़िद और जुनून थी कि जब सेटेलाईट फैमिली बनकर ही जीवन शेष होना है तो क्यों ना ऐसे शहर का रुख किया जाय जो सुकून दे सके। जहां दो चार नाते - रिश्तेदार हों और जहाँ की आबो - हवा में जिंदादिली हो। उस पैमाने पर वह शहर एकदम फिट बैठता था शहर के पॉश समझे जाने वाले मोहल्ले में वह रिटायर्ड पुलिस वालों की अच्छी कालोनी थी। कुमार साहब के साढू उस कालोनी की सोसाइटी के मंत्री थे और कुमार साहब के लिए मानो यह मोहल्ला इस्तकबाल करने के लिए तत्पर था। वर्ष 2013 के अगस्त महीने में कुमार साहब का रिटायरमेंट हुआ और जमा पूंजी एक साथ मिली ही थी कि उनके साढू का सन्देश भी मिल गया कि कालोनी का एक प्लाट री-सेल हो रहा है और वह उनकी जान पहचान के हैं इसलिए सौदा पट जाएगा। गोरखपुर से भाग कर कुमार अपनी पत्नी सुमन के साथ पहुंच गए और पहली ही नज़र में वह प्लाट पसंद आ गया। पत्नी भी सरकारी सेवा में थीं और उनको रिटायर होने में अभी वक़्त था। हमलोग प्लाट की ओर जा ही रहे थे कि "मिसेज कुमार ...आप यहाँ ?" कुछ चौंकते हुए सी बोल उठी एक महिला हम लोगों के सामने आकर खड़ी थीं।

"हाँ , मिसेज प्रसाद, कैसी हैं ! अब हमलोग भी आपके मोहल्ले में बसना चाहते हैं।" पत्नी का यह प्रति उत्तर था।

"अच्छा रहेगा जब हमलोग आपके साथ रहेंगे और ढेर सारी पुरानी यादों को ताज़ा करेंगे।...वैसे मैं डी - 45 में हूँ ..आप कभी उधर भी ज़रूर आना।" इतना कहकर वे जा चुकी थीं। कुमार साहब ने अनुमान लगा लिया कि यह सुमन की कोई पुरानी जान पहचान वाली महिला रही होंगी और उन्हें मन ही मन खुशी भी हुई कि एक और परिवार से घनिष्ठता की संभावना तो बढ़ी ! ज़मीन की अगले ही दिन रजिस्ट्री आदि हो गई और कुमार साहब वापस गोरखपुर चले गए।साल के अंत तक पत्नी का स्थानान्तरण उस शहर में उन्होंने करवा लिया। दोनों के जीवन की एक नई शुरुआत हो चली। पत्नी को ऑफिस कैम्पस में ही आवास मिल गया था। अब उन दोनों की योजना प्लाट पर एक खूबसूरत आशियाना खड़ा करने की बनने लगी। वाकई सुमन के सहयोग से एक बहुत ही बढ़िया आर्किटेक्ट मिल गए और उन्होंने उस प्लाट के लिए एक खूबसूरत नक्शा बना कर पास होने के लिए जमा कर दिया। तीन चार महीने में उनका नक्शा पास होकर मिल गया। एक और सिविल इंजीनियर से उसके निर्माण के बाबत कान्टेक्ट किया गया तो लगभग अठारह लाख का जुगाड़ करने का एक यक्ष प्रश्न भी आकर खड़ा हो गया था। विधाता ने जब मन बना ही लिया था कि कुमार साहब को इस शहर में घर बनवा कर स्थापित ही करना है तो यक्ष प्रश्न भी तरल हो उठा। भारतीय स्टेट बैंक ने पत्नी की पे स्लिप पर पंद्रह लाख का लोन पास कर दिया। सपनों को पंख मिल गये और देखते देखते उस कालोनी का सबसे नया और भव्य मकान बन गया।

वर्ष 2005 में 5 मई की दुपहरिया में गृहप्रवेश की रस्म पूरी हुई और मुहल्ले वाले तथा रिश्तेदार नातेदारों ने लंच लेकर कुमार परिवार के लिए मंगल कामनाएं कीं। कुमार साहब के जीवन का यह अंतिम पड़ाव बनने वाली जगह थी। एक बात अवश्य कुमार साहब को खटक रही थी कि विनम्र होकर निमंत्रित होने के बावज़ूद उनके गाँव के लोगों ने न जाने क्यों आना मुनासिब नहीं समझा...शायद वे अपनी संकीर्णता से उबर नहीं पाये थे, कम से कम कुमार ने ऐसा ही सोचा। सुमन के लिए भी यह पीड़ा दायक रहा, समय अब पंख लगाकर उड़ता जा रहा था। मुहल्ले में रिटायर्ड पुलिस अधिकारी अब भी अपनी अकड़न छोड़ नहीं पा रहे थे। दस दस साल से रिटायर हो चुके साहब लोग कालोनीवासियों को कुछ अलग ही तवज्जो दिया करते थे मानो वे उनके मातहत हों। कुमार उन लोगों के बीच किसी तरह समन्वय बनाकर चलना चाह रहे थे लेकिन चाहकर भी ऐसा नहीं हो सका और सूबे के पुलिस प्रमुख रह चुके मि. गरुड़ नामक एक मुहल्ले वासी से उनकी खटपट हो ही असल में व्हाट्सएप पर आए एक मैसेज को लेकर यह तक़रार शुरु हुई थी।कालोनीवासियों का एक व्हाट्सएप ग्रुप बना था जिसमें आपसी संवाद आदि हुआ करते थे। एक संदेश मुआ रिजर्वेशन को लेकर भी आ गया था जिसे कुमार साहब ने उन जनाब को भी फारवर्ड कर डाला था। वह दौर फेक और रियल स्टोरीज़ के गड्डमड्ड का था और मि.गरुण को बहुत सीरियसली नहीं लेना चाहिये था। इतनी ऊंची कुर्सी पर बैठ चुके व्यक्ति को तो कतई नहीं। लेकिन अपनी पत्नी के चढ़ाने पर उनकी जातिगत कुंडलिनी जाग उठी और कुमार साहब चूंकि चौबीस कैरेटी ब्राह्मण थे इसलिए वे उनका कोपभाजन बनने से नहीं बच पाये। दोनों में शीत युद्ध का बिगुल बज चुका था। कुमार साहब मीडिया के पुराने खिलाड़ी थे और मि.गरुड़ की धमकी भरी बातों को वे रिकार्ड भी कर चुके थे, कुमार साहब को पहली बार यह एहसास हुआ कि कुर्सियां आदमी को कभी कभी अपनी बाहों में इस क़दर जकड़ लेती हैं कि उस पर बैठकर उतर चुका आदमी अपने आपको आजीवन के लिए सर्वश्रेष्ठ समझने लगता है। उसकी निजी राय यह बन गई कि रिजर्वेशन या सोर्स सिफ़ारिश के बल पर अगर वह कुर्सी मिली हो तब तो और भी ख़तरनाक हुआ करती है। कुमार असमंजस के दौर से गुजर रहे थे कि पत्नी की सलाह काम आई और उन्हें भी यह लगा कि ऐसे प्रकरणों में अपनी ऊर्जा बर्बाद करने से बेहतर है कि वे ऐसी फेक पोस्ट, री- फारवर्ड करने के लिए खेद व्यक्त कर लें।उन्होंने वैसी ही समझदारी से काम लिया और मि.गरुड़ के उबलते क्रोध का पारा अब उतरने लगा था।

कौन कहता है कि हम सभी जाति पाति ऊंच नीच की संकीर्णता से ऊपर उठ चुके हैं? अभी संकीर्णता की काल कोठरी आए दिन बहुतों को असहज किये बैठती है। पढ़े लिखे तो और भी इसे बढ़ावा दे रहे हैं।



Rate this content
Log in