गुलाबी बूटियों वाला सूट

गुलाबी बूटियों वाला सूट

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सूरज अपनी सिंदूरी आभा लिये आसमान के माथे पर आ गया है। दिन धीरे धीरे निकल रहा है। अंधेरा रहते रहते रुपिंदर उठी थी। तब से अब तक काम धंधे में लगी ही है। उसने आसमान की ओर देखा। तारे उजास के आँचल में जा छिपे थे। रुपिंदर ने हाथ जल्दी जल्दी चलाने शुरू कर दिए। छाबे ( सरकंडे का रोटी रखने का टोकरा ) में रोटियाँ डलती जा रही है। लगा , काफी हो गई हैं। उसने छाबा उठा अंदाजा लगाया। चूल्हे से लकड़ियाँ बाहर खींच उसने अंगारों पर पतीली रक्खी। उसमे चाय की पत्ती, दूध, चीनी सब इकट्ठा डाल ढक्कन दिया। भडोले में से मोठ ,बाजरे की खिचड़ी निकाल हांडी में डाल हारे में चढ़ा दी। छाबे में से दो रोटियाँ निकाल ऊपर लाल मिरचों की चटनी रख पौने में लपेट ली।

भोला ट्राली लेके आता ही होणे। आता ही जोर जोर से दो आवाजें मारेगा। जो भाग के ट्राली में चढ़ गयी सो चढ़ गयी। नहीं तो ट्राली अगले वेहड़े (आँगन ) ।

उसने बाल सीधे कर शाल लपेटा ही था कि भोले की हांक (पुकार ) सुनाई दी। आजा भाबी जल्दी कर। देर हो रही है। उसने सास को चाय और खिचड़ी देख लेने के लिए कहा और पैर में जूती फँसाती गली में आ गयी।

सारी गली की बहुएँ और बेटियाँ अपने अपने घरों से निकल कर ट्राली में बैठती जा रही थी। कोई कोई बुजुर्ग बेबे भी थी। उसके ट्राली में बैठते ही भोले ने ट्रेक्टर स्टार्ट कर लिया। गाँव की जूह (कच्ची पगडंडीजैसी गली ) पार कर ट्रेक्टर खेतों की ओर चल पड़ा था। कच्ची पही ( पगडंडी ) के दोनों तरफ कपास और नरमा खिला हुआ था। हरे और भूरे पत्तों के बीच से झांकती चिट्टी सफेद नरम नरम रुई किसी घूँघट में ठिपी नई नवेली के ताजगी भरे मुखड़े जैसी लग रही थी ।  

दस मिनट लगे होंगे कि वे सब जमींदार के खेतों में पहुँच गई। जमींदार खेत में ही खड़ा था- आजो भाई कुड़ियो ! लग जाओ अपने कम्म पर। ये बड़ा कियारा अज्ज चुगा जाना चाहिए। ठीक है। जमींदार सबको काम पर लगा के अपनी जीप ले के चला गया है। हासे मखौल (हँसी –मजाक ) के साथ कपास चुगने का काम चल पड़ा है। सारी औरतें नरमें के पौधे से कपास चुन रही हैं।  जल्दी जल्दी रुई चुनके अपने पीछे बंधे कपड़े में डालती जा रही हैं। शाम को अपनी अपनी ढेरी तुलवाने के बाद उसी तोल के हिसाब से मजदूरी मिलनी है। रुपिंदर के हाथ भी तेजी से कपास चुन रहे हैं।

 छोटा जमींदार महिंदर उसके पास से निकलता है – 

" भाबी येह की ! मैं भी जिन्दा जागता और भाई नाज़र भी। फिर यह विधवा वाला बाना क्यों ? “

वह शर्म से सिकुड़ गई है। लड़कियों में हँसी का दौरा पड़ गया है। तड़प कर उसने घूँघट में से आँख उठाके देखा। एक चमकती आँख सीधे महिंदर पर गई। वह मुस्कुरा रहा था। अपनी मासूम शरारती आँखों के साथ। 

वह बोल कर आगे बढ़ गया तो उसने एक निगाह अपने आप पर मारी। धोते धोते फीका पड़ गया स्लेटी कैश्मीलोन का सस्ता सा सूट जिसके छापे भी अब घिस गए थे। हाथ में नाज़र का दिया लोहे का कड़ा जो वो मुक्तसर के माघी वाले मेले से पारसाल ले के आया था। दूसरा हाथ खाली। इस बार तियां (हरयाली तीज ) आयें तो वो सुनहले मीने वाली गुलाबी चूड़ियाँ जरुर लेगी। चूड़ी खनकते हाथों से जब वह नाज़र को रोटी पकड़ाएगी ....। बहकती फिसलती सोच पर काबू पा कर उसने फिर से कपास चुनना शुरू कर दिया है।

महिंदर ने अफ़ीम की चुटकी और मसालेवाली चा बनवा ली है। भोला सबको पीतल के गिलासों में चाय दे रहा है। साथ में आटे वाले चार चार बिस्कुट भी।सारी औरतें महिंदर को असीस रही हैं - जिउदा रहे जवानियाँ माणे। ईश्वर इसे हमेशा सुखी रखे। इस टाइम चा की बहुत जरूरत थी। 

महिंदर आवाज़ देता है - “ भाई किसी को और चाय चाहिए तो आ के ले जाओ।"

रुपिंदर ने मिरचो की चटनी के साथ अपनी इकलौती रोटी भी निकाल ली है। सुबह से खाने का टाइम ही नहीं मिला था। अब मिला है तो रोटी खानी तो बनती है। उसका मन किया ,उठ के एक गिलास चाय और ले आये पर संकोच ने पैर जकड़ लिए। कोई और तो जा नहीं। वह अकेली कैसे जाए।

अरे ये क्या ? महिंदर क्या मन पढ़ना जानता है। उसने भोले को चाय का डोल दे के भेज दिया है - ले भाबी चा " उसने बिना कुछ कहे गिलास आगे बढ़ा दिया। भोले ने गिलास फिर से भर दिया। 

रुपिंदर का मन कर रहा है - फिल्म वाली शहरन लड़की की तरह उठ कर जाए और महिंदर को बोले - थैंक उ जी। पर रुपिंदर तो रुपिंदर है। नाज़र की वहुटी। इस गाँव में ब्याह कर आई है। इसलिए वह चुपचाप चाय पीती रहती है।

चाय पीकर लड़कियों ने हीर (पंजाब का लोक गीत ) छोह ली है। उनके ऊँचे और मीठे सुर कपास और सरसों के ऊपर से गेहूं की बालियों के साथ साथ हवा में तैरने लगते है। एक कली के बाद दूसरी, दूसरी के बाद तीसरी कली उठाई जा रही है। काम की रफ्तार बढ़ गई है। शाम तक कपास के ढेर लग गए है। तुलाई हो रही है किसी को सौ, किसी को सवा सौ रूपये मिले है रुपिंदर को डेढ़ सौ। मगन मन सब उसी ट्राली में बैठ अपने अपने घर लौट रही है। रुपिंदर भी घर लौट आई है।

शाम का चूल्हा चौका निपटा के वह दूध सम्भाल रही है। नाज़र अभी तक घर नहीं आया। वह सब्जी एक कटोरी में निकाल पत्थर के कूंडे से ढक देती है। रोटियाँ छाबे में ही रहने दी है। नाज़र बैठा होगा दोस्तों के साथ ताश की मंडली में। शराब पी रहा होगा। जब अच्छे से मन भर जाएगा तब घर आएगा।उसका रोज का काम है। गिरता पड़ता शराबी हुआ आधी रात को घर लौटता है। कभी रोटी खाता है, कभी बिना खाये सो रहता है। पर उसे गालियाँ देना कभी नहीं भूलता।

माँ भीतर से आवाज़ दे रही है - रुपिदर पुत्तर तू अब सो जा। आएगा तो अपने आप रोटी खा लेगा। सुबह से काम कर करके थकी हुई है। सुबह फिर काम पर जाना है। सो जा मेरी धी।

वह चुपचाप अपने कमरे में आ गयी। चारपाई टेढ़ी कर बिना गद्दा बिछाए लेट गयी।आँखें बंद कर सोने की कोशिश कर रही है पर एक शरारती आँख आँखें बंद करते ही आँखों के सामने आ कर खड़ी हो जाती है। सोने ही नहीं दे रही कमबख्त ।

सुबह उसकी आँख चार बजे ही खुल गई। साथ वाली चारपाई पर नाज़र खर्राटे भरता हुआ अभी सो रहा है। उसने कल खेत से तोड़े बैंगनों में आलू डाल कर बैंगन - आलू की सब्जी चढ़ा दी। आटा गूंध कर फुल्के भी बनाकर छाबे में लपेट कर रख दिए। सारा काम निपटा वह बराण्डे में बंधे टंगने के पास पहुंच। पहनने के लिए कपड़े लेने को हाथ बढ़ाया।  सामने कई कपड़े टंगे थे पर उसे आज कोई पसंद नहीं आया। उसने अपना दाज वाला संदूक खोला। ऊपर ही नीली ज़मीन पर सुर्ख गुलाबी फूलों वाला सूट रखा था। उसने उठा कर प्यार से सहलाया। नरम नरम कपड़े का स्पर्श उसके मन को भीतर तक आद्र कर गया। और वह सूट उठा मंजा टेढ़ा कर नहाने चली गई। थोड़ी देर बाद रुपिंदर अपना गुलाबी दुपट्टा ओढ़े नीली ज़मीन और गुलाबी फूलों वाला सूट पहने बैंगन आलू रोटी खा रही थी। आँखें दरवाज़े पर लगी थी। उसके कान भोले के ट्रेक्टर और उसकी आवाज़ का इन्तजार कर रहे थे। सूट के गुलाबी फूल खिल उठे थे।


लोकल शब्द = 1 छाबा =बांस की रोटी रखने की छोटी टोकरी या डिब्बा ,2 भडोला= टिन या मिट्टी का अनाज रखने का बर्तन , हारा = छोटा तंदूर जिसमे दूध ,दाल ,खिचड़ी हल्की आंच पर पकाई जाती है ,4 कूंडा = मिट्टी की चटनी मसाला पीसने का पात्र , 5 जूह = इलाका , 6 पहि = रास्ता ,  


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