दीदी
दीदी
दीदी मुझसे ढाई बरस की बड़ी थी, लेकिन मेरे सम्बन्ध में सारे निर्णय साधिकार लेती थी। स्कूल कितनी देर में पहुंचना है, तेज़ चलना है या धीमे, अगर रास्ते में बारिश हो रही हो तो भी अपनी बरसाती उस लायक है कि नहीं कि उसे बस्ते से निकाल कर ओढ़ा जाये, घर का टिफ़िन सब सहपाठियों के संग खाने लायक हो तो निकाला जाये अथवा न निकाला जाये....इन सारे महान विषयों पर वह निरंतर चिंतन करती रहती थी और मैं उसका मुँह ताकता रहता था कि कब वो किसी निष्कर्ष पर पहुंचे ताकि उसे कार्यान्वित किया जा सके।
तब हम दोनों एक ही विद्यालय में पढ़ते थे। वह पांचवीं कक्षा में और मैं तीसरी में। विद्यालय हमारे घर से कुछ फासले पर था जहाँ हम पैदल ही जाया करते थे। मुझे अपने घर से विद्यालय तक का रास्ता पूरी तरह याद नहीं हो पाया था ........ या यूँ कहें कि उसे ऐसा लगता था अतः मेरी छुट्टी दोपहर एक बजे हो जाने के बावजूद उसके आदेशानुसार मुझे उसकी छुट्टी होने तक अगले दो घंटे किसी पेड़ की छाँव में बैठा रहना पड़ता था....।यह भी वही तय करती थी कि मैं किस पेड़ के नीचे बैठूंगा।
गर्मियों के दिन में विद्यालय के बाहर बिलकुल सन्नाटा हो जाता था कुछ इक्का दुक्का ठेले-खोमचे वाले आस-पास अमरूद, खट्टी इमली, झरबेरी या आइसक्रीम के साथ ऊँघते अलसाये से बच्चों की छुट्टियों के इंतज़ार में तपस्वियों जैसे धैर्य के साथ बैठे रहते थे। मेरा जी बार-बार कुछ खाने को ललचा जाता था परन्तु दीदी का सख्त निर्देश था की उसके आने से पहले कुछ भी न खरीदा जाय....मै मन मसोसकर रह जाता था।
तीन बजे के आस-पास दीदी की छुट्टी होती थी। उजले टॉप और लाल स्कर्ट पहने लड़कियों की एक नदी सी विद्यालय के बाहर की ओर उमड़ पड़ती। मैं दूर से ही दीदी को पहचान लेता था....बस फिर क्या था, मेरा मुरझाया चेहरा खिल उठता था। तत्काल मैं दीदी की ओर दौड़ पड़ता और दीदी का हाथ पकड़ कर अपनी पसंद के खोमचे वाले की ओर खींचने लगता। दीदी मुझे यूँ देखती जैसे कोई बुजुर्ग व्यक्ति छोटे बच्चों की शरारतों पर उसे देखते हैं ....।।फिर वो मुझे लेकर भीड़ से थोड़ा अलग ले जाकर धीर-गंभीर भाव से कहती, "आज अमरूद खाना है"
मैं समझ जाता था कि आज फिर मेरी मुसीबत। पास ही एक पेड़ की छाँव में एक बुढ़िया ताज़े अमरूद बेचती थी, वैसे तो छुट्टियों से पहले वो अपना टोकरा ढंके हुए ऊँघती रहती थी, लेकिन कक्षा समाप्त होते ही विद्यालय से बाहर निकलने वाली ढेर सारी लड़कियां उसके टोकरे पे टूट पड़ती और कुछ ही देर में उसके सारे अमरूद समाप्त हो जाते। बहुत सी लड़कियां उसके चारों ओर उमड़ पड़ने वाली भीड़ का फायदा उठा कर उससे कह देती की पैसे दे दिए गए हैं ........बुढ़िया एक-दो बार संदेह व्यक्त करती परन्तु दृढ़ता से बार-बार कहने पर अविश्वास के भाव से ही सही ....। अमरूद दे देती थी। दीदी ने भी एक बार इसे आजमाया था और सफल रही थी....।अब वो कई दिन से वही दांव मेरे द्वारा आजमाना चाहती थी परन्तु मेरे डर की वजह से अभी तक मैं उसके इस एकमात्र कार्य को अंजाम नहीं दे पाया था।
"मुझसे नहीं होगा दीदी" -- मैंने डरते-डरते कहा।
"तू जा तो सही, मैं हूँ न"
बहुत मुश्किल से मैं लड़खड़ाते क़दमों से बुढ़िया के खोमचे के पास पहुंचा। वहाँ इतनी भीड़ थी कि मेरी बात वो सुन ही नहीं पायी उलटे भीड़ में मैं चारों ओर से दब गया। किसी तरह जान छुड़ाकर मैं वापिस आ गया...."दीदी मुझसे नहीं होगा"
दीदी मान गयी। फिर हम दोनों ने कुछ पके हुए झरबेरी खरीदे। हम दोनों का यह मानना था कि पके हुए झरबेरी के अंदर बुढ़िया के थूक होते हैं....;फिर भी हम उसे चाव से खाते थे।
गर्मियों के दिन में चार बजे शाम भी दोपहरी जैसी ही होती थी। विद्यालय से घर तक के रास्ते पहाड़ी और घुमावदार थे। रास्ते में एक बागीचा पड़ता था जिसका मुख्य दरवाजा हमेशा बंद रहता था....क्यों, ये आज तक मुझे नहीं पता। हम अक्सर ऐसी जगह से उसकी दीवार फांद जाते थे जहा वह काम ऊंचाई पे थी ....पहले दीदी उस पार जाती थी फिर मुझे भी खींच लेती थी। वो बागीचा पता नहीं कैसे-कैसे झाड़-झंखाड़ और पेड़ों से भरा पड़ा था। बाग़ के बीच में एक लाल पत्थर का फव्वारा बना हुआ था जो पता नहीं कब से सूखा पड़ा था।
क्रमशः
