बेरोजगारी- (चार दिन की नौकरी)
बेरोजगारी- (चार दिन की नौकरी)
दर-दर भटक रही थी। गर्मी के मौसम में पसीने से लथपथ। और बारिश के मौसम में भीगी हुई तरबतर। एक डॉक्टर होने के बावजूद भी इतना भटकना पड़ा। अपने जीवन की कुछ शर्तें, कुछ नियम जिन्हें पालना ही अपना कर्तव्य समझती रही। दूर सूनसान सड़क पर आज अकेले ही चली जा रही थी। संग थी तो बस पेड़ों से टकराती और गालों को छूती हवा। हवा के स्पर्श से शरीर सिहर जाता। मानों झुरझुरी आ गई हो। एक विचार कौंधता और फिर गायब हो जाता। और पैरों की चहलकदमी के साथ-साथ यह क्रम भी निरंतर चल रहा था। एक बड़ा हॉल नाम पुकारा गया डा.अमिता धूत और हॉल तालियों की गड़गड़ाहट से गूँज गया। उस दिन पीएचडी की डिग्री मिली थी। अनेकों ख़्वाब दिल, दिमाग, मन में चल रहे थे। बचपन से डॉक्टर बनना था, लेखिका बनना था। याद है मुझे ११ वीं कक्षा में पहली बार घर की छत पर अभिलाषा संग एक शायरी लिखी थी और दोनों खूब खिलखिलाकर हँस पड़ी थी। बस वो दिन है और आज का दिन है कलम कभी रुकी नहीं। शायरी, कविता, कहानी, उपन्यास, समीक्षा सब कुछ लिखा। अनगिनत लोगों को फ्री में स्क्रिप्ट भी लिखकर दी। कभी स्कूल के लिए, कभी कॉलेज के लिए, कभी मूवी के लिए। अनगिनत किताबों का काम भी फ्री में किया। लेकिन जैसे डिग्री कागज़ पर ही दिखती है, शायद अनुभव भी कागज़ पर ही दिखता है। अनेकों साक्षात्कार दिए बेहूदा सवालों के जवाब दिए। एक १२ वीं पढ़ा एक डॉक्टर का साक्षात्कार लेता है। एक कार सर्रर्रर से गुजर गई और वापसी हुई कि सड़क पर चल रहीं हूँ। भगवान का शुक्र कि कार ने ठोका नहीं। काश! ठोक देती तो ठोकरें नहीं खानी पड़ती। अनेकों पदाधिकारियों ने नौकरी दिलाने के कई झूठे वादे किए। आज-कल, आज-कल और बरस बीत गया। ३ महीने पहले सोशल मीडिया से एक नौकरी पता चली। और तुरंत ईमेल डाल दिया। खैर हमेशा की तरह फोन आया और आवाज आई, “अमिता जी कल १२ बजे साक्षात्कार के लिए आ जाना। सारी जानकारी आपको ईमेल पर भेज देंगे। ” भटकते-भटकते, पूछते-पूछते हर बार की तरह समय पर पहुँच गई। विडंबना यह कि जिन्हें हिंदी का ‘ह’ नहीं पता, वो हिंदी संबंधित चीजों का साक्षात्कार ले रहे। खैर इन सबकी तो आदत बन चुकी। सब जगह यही तो होता आया था। एक खीझ उत्पन्न हुई, फिर भी मुस्कुरा कर हर प्रश्न का उत्तर देना ज्यादा उचित समझा। हर बार की तरह रटी-रटाई पंक्ति, “हम आपको कॉल करेंगे। आप समर्थ हैं। फिर भी हम सोचेंगे। ” झूठी मुस्कान से अलविदा लिया और दिया और कदम पुनः घर की तरफ बढ़ चले। सुबह तो जल्दी-जल्दी में गई थी। अब धीरे-धीरे चली तो याद आया यहाँ तो बहुत प्रसिद्ध गणपति राजा लगते हैं। टीवी में देखा है। घंटों लाइन में लगने के बाद दर्शन होते हैं। मन्नत माँगो तो पूरी हो जाती है। नंगे पैरों कई कि.मी. चलकर लोग यहाँ आते हैं। एक-दो बार आई थी। पर भीड़ से घबराहट होती है इसलिए घर में विराजमान गणपति को प्रणाम करना ही उचित समझा।
कुछ दिनों बाद काव्यपाठ का सुअवसर मिला तो वहाँ चली गई। सामान्य चल रही जिंदगी में जैसे एक फोन ने ३ महीने बाद भूचाल ला दिया या खुशी भगवान ही जाने? आवाज़ आई, “आपने ३ महीने पहले साक्षात्कार दिया था। हम आपको रखना चाहते हैं। ” मैंने कहा, “ठीक है! लेकिन, उस दिन आपको इमरजेंसी थी, फिर जब मैंने पूछा तो आपने कहा कि वैकेंसी नहीं है, अब फिर कह रही इमरजेंसी है। ” प्रत्युत्तर मिला, “आपको लिखने का अनुभव है, आपकी हिंदी अच्छी है इसलिए बॉस आपको बुला रहें हैं। ” मेरी ख़ुशी का ठिकाना न रहा। मैंने कहा, “ठीक है! एक तारीख से आ जाऊँगी। ” ऑफिस का पहला दिन सबसे मिली, उस दिन ९ से १० नए लोग दूसरी फ़ील्ड के और भी आये थे। सबसे मिलना-जुलना हुआ। काम को समझा। दूसरे दिन से हर काम समय से परफेक्शन के साथ किया। मैं खुश थी जैसा चाहिए वैसा मिला। पर पहले दिन से ही लगन से काम करने की वजह से कुछ हिंदी भाषियों की नजर में खटकने लगी। और यह बात मुझे भलीभांति समझ गई थी। मैंने मन को समझाया, “यह राजनीति तो संसद से ज्यादा बाकी सब जगह ज्यादा विद्यमान है। इग्नोर करो। ” जो काम कंपनी में एक महीने से अटके पड़े थे वो दो दिन में निपटा दिए। कई बार खांसने के बाद कहा, “ac थोड़ा कम कर दो। ” पर किसी ने नहीं सुनी। खैर इतनी बड़ी रकम मिल रही है एडजस्ट तो करना ही पड़ेगा। सुबह पांच बजे उठो, सूर्य नमस्कार करो, नहाओ, पूजा-पाठ करो, एक रोटी चाय से खाओ और ७.१७ पकड़ने के लिए भागो। कभी नहीं सोचा था सबकी तरह मैं भी भागूँगी। रात को दस बजे घर की बेल बजाओ। पूरा दिन बैग में से सुबह का बना हुआ ठंडा खाना खाओ। रात को गरम खाना नसीब होता। ऑफ़िस में माइक्रोवेव भी है। सब खाना गरम करके खाते हैं। लेकिन माइक्रोवेव में से रेडिएशन निकलती हैं जो स्वास्थ्य के लिए हानिकारक होती हैं इसलिए मैं ठंडा ही खा जाती थी। खाना खाते रोई भी। क्यों? पता नहीं। मुस्कुरा कर दिन बीता दिए। दो दिन की छुट्टी मिली। आराम किया। वैसे भी बहुत बारिश है। चारों तरफ बाढ़ के हाल। कुछ काम निपटाने थे। धरे के धरे रह गए। दो दिन आराम करने के बाद जब फिर समय पर पहुंची, पूरा दिन आसान काम देते रहे। निकलते समय ये करो, वो करो। ये लेख लिखो, वो लेख लिखो। ये प्रूफ रीडिंग करो। फिर झुंझलाकर कह दिया, “समय से आती हूँ, समय से काम करती हूँ, समय से ही जाऊँगी। घर पहुँचने में समय भी लगता है। ” गुस्से में हिंदी भाषी पंडिताइन बोली, “जाओ। ” बैग उठाया छिकते-छिकते घर तक पहुंची। ac फुल चलने के कारण सांस आना बंद हो गया था। ac से शरीर और वातावरण दोनों को नुकसान पहुँचता है। ac में बैठकर लेख लिखो ‘ग्लोबल वार्मिंग’ पर। रात भर साँस न आने की वजह से सो न सकी। फिर सुबह ५ बजे अलार्म ने जगा दिया। ९ बजे फिर ऑफ़िस पहुँच गई। १० बजे पंडिताइन मैडम आई, “इधर आओ। कल तुमने ये गलती की, वो गलती की। ” मैंने कहा, “इतने लेख में से एक लेख ही गलत है। अभी कुछ मिनट में सही कर देती हूँ। ” पंडिताइन मैडम चिल्लाते हुए बोली, “अब क्या करोगी। मैंने कल कर लिया। ” मैंने कहा, “क्रिएटिव चीज के लिए शांत चित्त से लिखा जाता है। इतने दिन से सब शांत चित्त से लिखा एक कमी नहीं। आप इस तरह रात को बैठकर लिखने को कहोगी तो ऐसा ही होगा। ” पंडिताइन का मुँह लाल लिपस्टिक की तरह लाल हो गया। “जाओ बैठो अपनी जगह पर। एक ईमेल करती हूँ अनुवाद कर देना। ” ५ घंटे में १५ लेख अनुवाद बिना किसी गलती के किये। पर हर पांच मिनट में आँसू, खांसी, कफ और आवाज़ तो मानो साँस के साथ बंद ही हो गई थी। पैसे काम के मिल रहे, स्वास्थ्य और सेल्फ-रिस्पेक्ट गँवाने के नहीं। बॉस के आते ही पंडिताइन मैडम मीठे स्वर में बात करने लगी। बॉस ने सारे लेख अप्रूव कर दिए। सब बैठते हो रात के दो बजे तक बैठे। पूरा दिन फोन पर बात करेंगे। शाम को ५ बजे से काम करेंगे और रात भर बैठेंगे। मैं निकल गई ५.३० बजे। ट्रेन में बहुत भीड़ थी। जद्दोजहद के बाद ट्रेन मिली। रास्ते भर रोती रही। घर पहुँचने में ३ घंटे लगे। गुस्सा किस बात का था पंडिताइन को? ३ महीने पहले साक्षात्कार दिया था, तब भी इस तरह बात की थी। अभी चार दिन से यही हो रहा है मेरे साथ। फिर समझ आया उसको डर है डॉक्टर आगे निकल जाएगी। वो pg और मैं डॉक्टर, वो ६ महीने में जो नहीं कर सकी, मैंने ४ दिन में कर दिखाया। खैर घर पहुँच कर मम्मी को सब बताया। ४ दिन से समय नहीं मिल रहा था कि घर वालों के संग बैठूं। अगली सुबह ac की ठण्ड की वजह से उल्टियाँ शुरू हो गई। विचार कौंधा, “कितना कमाती, कितना बचाती?” ईमेल डाल दिया तबियत ठीक नहीं इसलिए आज से नौकरी पर नहीं आऊँगी। सहसा एहसास हुआ सड़क ख़त्म हो चुकी है और अब मैं मिट्टी पर चल रही हूँ। उल्टे पाँव वापस चलने लगी। चलते-चलते दूर निकल गई थी। एक टैक्सी बामुश्किल मिली। “भईया स्टेशन चलोगे? और वापस घर रवाना। ” एक ट्रक में गणपति जा रहे थे ‘गणपति बाप्पा मोरया’ का नारा कानों में गूँज पड़ा। याद आया कि सबने कहा था, “गणपति राजा को पहली तनख्वाह से भोग लगा देना। ” अब सबको पता चला तो कहने लगे, “पागल हो क्या, क्यों छोड़ी नौकरी?” मन में विचार आया, “चार दिन की नौकरी, फिर से अकेली छोकरी।”