बचपन की वो होली
बचपन की वो होली
कितना अच्छा होता है यह बचपन। बचपन में वैसे तो हर त्योहार बच्चों के लिए मजेदार ही होता है। मगर होली का रंग कुछ अलग ही नशा सा बन जाता है। होली हर बच्चे को पसंद होता है। बचपन के समय में हर बच्चे गली गली में घूम कर अपने पराए हर किसी को होली का रंग लगा लेते थे। सबके घर में ढेर सारे मेहमान आया करते थे और सारे बच्चे मिलकर मजे से होली का त्यौहार को मना पाते थे। चाहे एक बच्चा गरीब क्यों ना हो मगर उसके साथ खेलने के लिए कुछ दोस्त मिल जाते हैं तो वह बच्चा कीचड़ के साथ भी होली खेल सकता है।
बड़े होने के बाद कहीं ना कहीं इन्हीं चीजों का कमियां दिखाई देने लगता है। सब लोग बड़े होकर अपने-अपने काम पर व्यस्त रहने लगते हैं। किसी के पास किसी को मिलने के लिए वक्त नहीं होता है। घर और आस पड़ोस के बच्चे सब कहीं दूर जाने लगते हैं। सारे दोस्त बिछड़ने लगते हैं। रिश्तो में कड़वाहट आने लगता है। होली का रंग कहीं ना कहीं फीका पड़ने लगी लगता है। उम्र के साथ साथ कई सारे नया रिश्ता बनाने लगता है। इन नए रिश्तो में पुराने रिश्ते कहीं ना कहीं खत्म हो जाने लगते हैं। नए रिश्ते में एक नया होली जरूर खेला जाता है। मगर इस होली में शामिल होने के लिए पुराने रिश्ते पास नहीं होते हैं। वक्त के साथ-साथ सब दूर होने लगते हैं।
आजकल फोन, फेसबुक, व्हाट्सएप और कई जरिए से पुराने रिश्तो को होली का मुबारक दे दिया जाता है। इससे सिर्फ दिल को तसल्ली मिल सकता है l मगर उन लोगों के साथ होली खेलने का वह पुराना दिन को वापस महसूस नहीं कर पाते हैं।
कितना अच्छा था वह बचपन, जहां कभी किसी बच्चे ने दूसरे बच्चे में रंग का भेदभाव नहीं रखता था, जहां दोस्त हर वक्त साथ होते थे, जहां कोई कुछ कह भी दे तो दिल को बुरा नहीं लगता था, जहां मिट्टी के साथ खेल कर एक बच्चा हर दिन होली का त्योहार मना पाता था, एक दोस्त के लिए दूसरे दोस्त के पास बहुत समय हुआ करता था। बड़ा होने के बाद ऐसे लगता है जैसे वह सारे दिन एक किताब का पुराना पन्ना बन कर रह चुका है। काश वह पुराना होली का पन्ना वापस सबके जिंदगी में लौटकर आ पाता।
