अपनी-अपनी लाचारी

अपनी-अपनी लाचारी

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“भैया टमाटर कैसे दिए ?”

“50 रुपए में एक किलो साहब जी।”

“भिन्डी कैसे ?”

“60 रुपए में एक किलो साहब जी।”

“आप तो बहुत महँगा बेच रहे हो भैया जी? उधर सब्जी मंडी के गेट पर तो बोर्ड में ‘आज का भाव’ चार्ट में बड़े-बड़े अक्षरों में लिखा है कि टमाटर 40 और भिन्डी 50 में एक किलो। वहां साहब लोग भी बैठे हैं। कहीं आपकी शिकायत हो गई तो...”

“कुछ नहीं होगा भाई साहब। साठ-सत्तर हजार की पगार पाने वाले मंडी के वो साहब सुबह-सुबह ही थैला भर ताजी सब्जी ले जा चुके हैं। वो भी एकदम मुफ्त। अब उसकी भरपाई मैं ग़रीब आदमी कैसे करूँ? आपको लेना है तो लीजिए वरना दूसरी जगह देखिये।” 

“आप लोग इसका विरोध क्यों नहीं करते ?”

“कब करें साहब ? रोज कमाते हैं तो घर में चूल्हा जलता है।”

“अच्छा ठीक है। ये रखो 40 रुपए और जल्दी से मेरे लिए आधा किलो टमाटर और एक पाँव भिन्डी निकाल दो।”

मुझे याद आया जल्दी से घर जाकर सब्जी छोड़नी है फिर बच्चे के स्कूल में पेरेंट्स मीटिंग में भी जाना है। अभी जाते समय रास्ते में रामजी भाई की दुकान में पिताजी का चश्मा भी ठीक करने के लिए देना है। समय किसके पास है इन सब कामों के लिए। सबकी अपनी-अपनी व्यस्तताएं हैं।



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