...अगर
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लेखक: विक्टर द्रागून्स्की
अनुवाद: आ. चारुमति रामदास
एक बार मैं बैठा था, बैठा था और अचानक मेरे दिमाग़ में ऐसा ख़याल आया कि मैं ख़ुद भी चौंक गया. मैंने सोचा, कि कितना अच्छा होता अगर दुनिया की सारी चीज़ें उलटी-पुलटी हो जातीं. जैसे कि, मिसाल के तौर पर, बच्चे हर चीज़ में महत्वपूर्ण होते और बड़ों को उनकी हर बात माननी पड़ती. मतलब, बच्चे बड़ों जैसे होते और बड़े बच्चों जैसे होते. ये होती कमाल की बात, कितना मज़ा आता!
सबसे पहले, मैं कल्पना करता हूँ कि मम्मा को ये बात कितनी ‘अच्छी’ लगती, कि मैं घूम रहा हूँ और उस पर अपनी मर्ज़ी से हुकुम चला रहा हूँ, और पापा को भी कितना ‘अच्छा’ लगता, और दादी के बारे में तो कुछ कहने की ज़रूरत ही नहीं है. मैं सबसे गिन गिनकर बदला लेता! मिसाल के तौर पर, मम्मा खाना खाने बैठी है, और मैं उससे कहता:
”ये बगैर ब्रेड के खाने का क्या फ़ैशन सीख लिया है तूने? और देख! ज़रा आईने में अपनी शकल देख, किसके जैसी दिखाई दे रही है? खूसट बुड्ढी! फ़ौरन खा, तुझसे कह रहे हैं!” – और वो सिर झुकाकर खाने लगती, और मैं बस हुकुम चलाता: “जल्दी! गाल पे हाथ मत रख! फिर सोचने लगी? सारी दुनिया की प्रॉब्लेम्स तुझे ही तो सुलझानी हैं ना? खा, जैसी तेरी मर्ज़ी! और कुर्सी पर झूला न झूल!”
और तभी पापा काम से लौटते, और वह कपड़े भी न उतारते कि मैं चिल्लाना शुरू करता:
“आहा, आ गया! हमेशा, बस, तेरी राह ही देखते रहो! फ़ौरन हाथ धो! कैसे धो रहा है, कैसे धो रहा है, गन्दगी फैलाने की ज़रूरत नहीं है. तेरे हाथ पोंछने के बाद तौलिए की ओर देखा नहीं जाता. ब्रश से घिस और खूब साबुन लगा. चल, नाखून दिखा! ओह, कितने डरावने हैं, ये नाखून हैं? ये तो किसी जानवर के तीखे नाखून हैं! कैंची कहाँ है? खींच मत! मैं कोई ऊँगली का माँस नहीं खींच रहा हूँ, बल्कि बड़ी सावधानी से काट रहा हूँ. नाक न सुड़क, तू कोई लड़की नहीं है...ये, हो गया. अब मेज़ पे बैठ जा.”
वो बैठ जाते और हौले से मम्मा से कहते:
“कैसी है तू?”
और वो भी धीरे से जवाब देती:
“ठीक हूँ, थैन्क्यू!”
मैं फ़ौरन कहता:
“मेज़ पे बात नहीं! जब मैं खाना खा रहा होता हूँ तो गूँगे और बहरे बन जाओ! ये बात ज़िन्दगी भर याद रखना. सुनहरा नियम! पापा! वो अख़बार रख दो, सज़ा हो तुम मेरे लिए!”
और वे चुपचाप बैठे रहते, और जब दादी आती, तो मैं आँखें बारीक कर लेता, हाथ नचाता और ज़ोर से कहता:
“पापा! मम्मा! ज़रा देखो हमारी दादी जान को! क्या शकल बना रखी है! सीना खुला हुआ, हैट सिर से खिसकी जा रही है! गाल लाल, सारी गर्दन गीली! बढ़िया, क्या कहने! मान ले कि फिर से हॉकी खेलने गई थी! और ये गन्दी लकड़ी कैसी है? तू इसे घर क्यों घसीट लाई? क्या? ये आईस-हॉकी वाली स्टिक है! फ़ौरन मेरी आँखों के सामने से दूर कर – पिछले दरवाज़े से!”
अब मैं कमरे में टहलता और उन तीनों से कहता:
”खाना खाने के बाद सब होम वर्क करने बैठो, और मैं फिल्म देखने जाऊँगा!”
बेशक, वे फ़ौरन बिसूरने लगते और ठिनकने लगते:
“हम भी तुम्हारे साथ जाएँगे! हमें भी फिल्म देखना है!”
मैं उनसे कहता:
“किसी हालत में नहीं, किसी हालत में नहीं! कल बर्थ-डे पार्टी में गए थे, इतवार को मैं तुम्हें सर्कस ले गया था! छिः! हर रोज़ घूमने-फिरने की आदत पड़ गई है. घर में बैठो! चलो, ये तुम्हॆ तीस कोपेक देता हूँ आईस्क्रीम के लिए, बस!”
तब दादी विनती करती:
“कम से कम मुझे तो ले चल! हर बच्चा अपने साथ किसी बड़े को मुफ़्त में तो ले जा सकता है!”
मगर मैं उसकी बात काट देता, मैं कहता:
“मगर इस फिल्म में सत्तर साल से बड़े लोगों को नहीं आने दिया जाता. घर में बैठ, घुमक्कड़ कहीं की!”
और मैं जानबूझ कर ज़ोर ज़ोर से एड़ियाँ खटखटाते हुए उनके सामने से निकल जाता, जैसे कि मैं देख ही नहीं रहा हूँ कि उन सब की आँखें गीली हैं, और मैं कपड़े पहनने लगता, बड़ी देर तक आईने के सामने घूम घूम कर देखता रहता, और गाना गाने लगता, और वे इससे और भी ज़्यादा दुखी होते, मैं सीढ़ियों का दरवाज़ा थोड़ा सा खोलता और कहता:
मगर मैं सोच ही नहीं पाया, कि मैं क्या कहता, क्योंकि इसी समय मम्मा आ गई, असली, सचमुच की मम्मा और बोली:
“तू अभी तक बैठा ही है. खा फ़ौरन, देख तो किसके जैसा दिख रहा है? बिल्कुल खूसट बुड्ढा!”