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अधूरा मन

अधूरा मन

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अधूरा मन

जीवन यही है एशो आराम, नौकरी , बच्चे ये सब पा कर भी , कुछ छूटा हुआ है ।न जाने कैसा खालीपन है जो भरता ही नहीं। कभी शराब में इसको ढूंढता हूँ , मौज मस्ती में कभी या शारीरिक मजे में भरने की कोशिश करता हूँ ।फिर भी खाली पड़ा कटोरा भरता ही नहीं। ऐसा क्यों होता है कितने लोगो से पूछा लेकिन
जवाब यही मिलता-
'बेटा -टेंशन मत लिया करो , इससे कुछ नहीं होगा, मजे लो जिंदगी के।'

मैं भी हां में सर हिला देता। शायद भिखारी, भिखारी को क्या दे सकता है।कभी कोई अनजाना चेहरा अपना लगता है, अपना बेगाना। अपने जख्म दे रहे है मरहम पराये, ये सारा खेल ही जरुरत का है । किसी को प्यार, पैसा किसी को, परायों में अपनों को तलाश रहा है ।सफर भी रोज का है जाना भी कहीं नहीं।
इस अधूरेपन को कैसे भर पाऊँ, आवारा मन को कैसे समझाऊँ?
सवाल भी मैं हूँ, जवाब भी मैं।
अंत भी मैं , शुरुवात भी  भी मैं।इसी मैं का जवाब ढूंढ रहा हूँ।
"जीवन क्या ऐसे ही निकल जायेगा ?
क्या आपके मन में भी ऐसे ही खालीपन महसूस होता है ?तो आप भी इस बीमारी के शिकार हैं , और इसकी दवा आपके भीतर ही छिपी है जिसको आप बाहर खोज रहे हैं।


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