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ज़ख्मे दिल

ज़ख्मे दिल

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ज़ख्मे दिल को ना समझे ये ज़माना
सब को बस है आपने अल्फाज़ों का रुआब जताना
क्या ही अच्छा होता अगर हम, तुम बन जाते
किस के दिल में क्या छूपा है खुद ही समझ जाते

पर ये बात तो बातों की नहीं
ये बात तो खालिस अपने ख्यालात कि है
जब लगे हवा रुख बदलने
कोई भला फिर क्यू कर उसके रुख को टोके
ज़माने का है दस्तूर अपनी ही गाथा गाना
क्या है छुपा किसके मन में ये ज़माने ने कब है जाना

खैर ये तो फितरत इंसानी है
हर किसी को अपनी ही बात हर एक से मनानी है
वक़्त का खेल अजीब देखा
हर कोई बना बैठा है कबीरा
पर सब के दिल में हमने एक सूना जंगल सा देखा


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