ये कैसा समय?
ये कैसा समय?
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खामोश सी नदी
आसमान ओढ़े
हैं तेज हवाएँ
मगर लहरें नहीं।
लगता है आज
नदी उदास है
रुक सी गई है
झील की मानिंद।
हरी जलकुम्भी ने
छिपाया जल-दर्पण
अपना अक्स जहाँ
देखते थे कभी बादल।
बीच बीच में
नुकीले चट्टान
भेद हरी चादर
बाहर को निकले।
चट्टानों पर कतारें
सफेद बगुलों की
जिनका मछलियों पर नहीं
कीड़ों पर ध्यान है।
तट पर हाहाकार
मचा, वो देखो!
कहाँ? अरे उधर
बहता जाता क्या?
पल में ही भीड़
निठल्लों की
बूढ़ों, बच्चों की
औरतों की।
जितने मुंह उतनी
बात बनी
ना जाने किसकी
जान गई।
कोई बोला - लगता
है गरीब मजदूर
दाने दाने को तरस
बिचारा चला गया।
कोई बोला - आशिक
है, चेहरा तो देखो
हार प्रेम की बाजी
ये जीवन से हारा।
पढ़ा - लिखा लगता
है बेरोजगार ये
सपने टूटे तो शायद
ये टूट गया।
कोई बोला - बस!
बातें कर लो बड़ी बड़ी
नदी पार करने में
लगता फिसल गया ये।
चर्चा चली खूब
अनुमान लगाए सबने
बहता रहा अभागा
आगे, शनैः शनैः।
पुलिस आई,
अफसर आए
जनता आई
नेता आए।
फिर से हल्ला
फिर है तमाशा
फिर से बातें
तोला माशा।
नदी अभी भी
चुप चुप सी है
एक उदासी
ओढ़े सी है।
समय की तरह
चुपचाप बहती नदी
देख रही है कोलाहल
और अनिच्छा भी।