वो मकान
वो मकान
आज गर्मी बहुत है और मुझे याद आ रहा
दादा दादी का वो मकान जो एक कस्बे में था
जिसका एक कमरा हम और हमारे चचेरे
भाई बहनों की जन्मस्थली था, जी हां हम सब
बच्चे उसी कमरे में पैदा हुए थे
ये सोच कर हंसते थे हम सब
बचपन में गर्मी की छुट्टियाँ
हम सब भाई बहन बिताते थे वहीं
हर सुबह बाबा हमारे बड़ी सी डोलची
लेकर दूध लेने निकल जाते थे
दादी सुबह अंधेरे उठ पूरे घर को बुहार
बड़ा सा आंगन धो, नहा पूजा कर दही बिलोती थी
हमारी माँ और चाचियाँ, नहा बनाती थी रसोई
बिना नहाए किसी बहू को रसोई में जाने की
तब इजाजत नहीं थी
फिर सब को परांठों के ऊपर माखन धर
नाश्ता कराया जाता
बाबा हमारे सब्जी मंडी से ढेरों फल और सब्जी ला
दुकान पर चले जाते थे
दोपहर को तंदूर पर घर की औरतें सब रोटी सेंक
माखन लगा तैयार करती
हम सब बच्चे बारी बारी हैंड पंप से पानी निकाल
नहाते धोते और अपनी माँ और चाचियों को
कपड़े धोने के लिए पानी निकाल कर देते
कोई खास सुविधा नहीं थी वहां
बिजली मुश्किल से 2-4 घंटे रात दिन में आती
दादी हमारी घर के मुख्य दरवाजे के सामने
छोटी सी चारपाई बिछा बैठी क्रोशिया बुनती
दरवाजा दिन भर खुला ही रहता था
घर में कोई ना कोई अड़ोसी पड़ोसी या
नाते रिश्तेदार आते ही रहते थे
ना टीवी ना फ्रिज था, वहां उस समय
बाजार से बर्फ लाकर ठंडा पानी, शरबत
और ठंडा दूध बनाते थे घर में
रात को छत पर पानी छिड़क बिस्तर बिछा
पुर गिनते गिनते हवा के इंतजार में कब सो जाते थे
हम जान नहीं पाते थे
अब घर में ए सी, टीवी, फ्रिज, बिजली, पानी
सुविधाएं है सब, पर है अकेलापन
अब वो मजा नहीं जिंदगी में
लगता है जैसे कहीं कुछ कमी है
वो मकान आज भी याद आता है
सपने में यदा कदा दिख जाता है।
