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उतरते मार्च की चंद तारीखेंं

उतरते मार्च की चंद तारीखेंं

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आज फिर चली है फागुनी हवाऐं मन

हुआ आँगन मेंं फिर महके सफेद फूल जूही के फिर पकी निबोली टपके तोते मँडराऐ मुट्ठी भर

आसमान फिर हो जाऐ अपना सा आँखेंं फिर देखे सपने सुहाने कोयल फिर कुहुके

फिर ले आये हवाऐं फागुनी गीतोंं को

टूटे से छप्पर तक टूटी सी खिड़की तक तुम देखो मेरी ओर फिर कातरता से कि ,ला सकते हो

सितारे आकाश से तोड़कर मेरे लिऐ और मैंं फिर देखूँ दहलीज के पार उतारे तुम्हारे फटे जूतो

को किवाड़ पर टँगी तुम्हारी रफ़ू पतलून को क्योँ मौसम छल जाता है अक्सर क्योँ याद आता है भूला सब बार बार


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