सरहदें (गुलाबी पंख की परवाज़ तारी)
सरहदें (गुलाबी पंख की परवाज़ तारी)
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आसमाँ पे लो फिर आऐ परिंदे
दूर मुल्कों की हदों के
फ़ासलों से
रौनकें गुलज़ार हैं
दरिया के दो बाजू परिंदे देखते हैं हवा,पानी,सब्ज़ हों बाजूबसाते आशियाँ अपना नहीं बँटते हैं मुल्कों में नहीं करते हैं तारे
आसमाँ पे कोई हदबंदी नहीं घिरती घटाऐं देखकर सरहद की चौबन्दी हवाओं को नहीं एहसास कितना और कहाँ बहना
तो फिर इंसाँ बँटा है क्यों मज़हब और मुल्कों में खिंची हैं सरहदें हम बँट गये हैं टुकड़ों टुकड़ों में ख़ुदाया किस तरह
हम मज़हबीं हैं किस तरह?
