तुम्हारी बेरुख़ी
तुम्हारी बेरुख़ी
बेरुख़ी तुम्हारी
चुभती है दिल को
खोजती है निगाहें
फिर उसी पल को
जब मेरे हर लफ़्ज़
प्यारी थी तुम्हें
एक हँसी को
बेताब रहती थी
सुबह से शाम तक
तुम्हारा पूछ लेना
सबब उदासी का
अच्छा लगता था
मेरे मन को
टोक देना तुम्हारा
लिखते समय कि
मत लिखो मेरा नाम
दुनिया को सब
पता चल जाऐगा
यही अपनापन तो
खींच लाई मुझे
तुम्ह
ारे पास
मुकर जाना तो
तुम्हारी आदत न थी
अचानक तुम्हारा
मुख मोड़ लेना
इस कदर
समझ नहीं पाया
शायद तुम्हें
कि तुम तो एक
बसंती बयार हो
महका कर उपवन को
चली जाती हो
दूर बहुत दूर
सदा सदा के लिऐ ............
प्रकाश यादव “निर्भीक”
बड़ौदा – 14-09-2015