सुकून
सुकून
मन का माहौल था बैचेन
सुकून तो था लापता
नींद के तलाश में नैन
अब जिन्दगी है बेरंग
मंजिल भी धुंधली
सुकून की तलाश में
निकल पड़ी मैं पगली
बस पर चढ़ी,सीट एक पकड़ी
सामने से मेरे आए,कांपती हुई एक बूढ़ी
देख कर अनदेखा किया, बस पर बैठे युवा पीढ़ी।
उठकर अपने सीट से, बिठाया उन्हे हक से
एक कांपती हुई हाथ फिर गई मेरे सिर से......
जाने का पता नही था कोई
अचानक एक छोटी बच्ची आई
पास आकर मेरे रोती ही गई
पूछने से कहा तीन दिनों से खाई नही
डिब्बे से मेरे रोटी खाई
मासूम से चेहरे पर खुशी का बादल छाई....
सामने था दो ठेला, गोलगप्पे का मेला
एक ठेले पर भीड़ इतना
दूसरे पर एक बूढ़ा अकेला
दिल ने कहा उनसे गोलगप्पे खाए
देख मुझे दो चार और भी आए
धीरे धीरे कर गोलगप्पे उनके
सारे के सारे खतम हुए
बुझी बुझी सी उन आंखों में
खुशी के आंसू बहते गए.....
अब दिल में बैचेनी की गुंजाइश नही
अब मरने की कोई ख्वाहिश नही
क्योंकि इन छोटे छोटे कामों से भी
दिल को मेरे है सुकून आई।