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सतीश मापतपुरी

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सतीश मापतपुरी

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सुक्खी बाबू

सुक्खी बाबू

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सुक्खी बाबू!सोचो जरा, कितने काले धन संचित हैं। 

तेरे बीच के बहुत लोग, थोड़े सुख से भी वंचित हैं ।


पैसा तेरा पड़ा है यूं ही , कब से इस तहखाने में।

पर नसीब नहीं कितनों को,रोटी नमक भी खाने में।

थोड़ा सा दिल बड़ा करो बस, इनकी जरूरत किंचित हैं। 

तेरे बीच के बहुत लोग , थोड़े सुख से भी वंचित हैं ।


वोट ही तो इनकी पूँजी थी , वो भी तुमको दान किया।

सुक्खी बाबू बने, थे सुखिया,पर इनको ना मान दिया।

तेरे बीच के होकर ये क्यों, तेरे लिये अकिंचित हैं।

तेरे बीच के बहुत लोग,थोड़े सुख से भी वंचित हैं।


जाति - धर्म के पचड़े में , मतदाता क्यों लुट जाते हैं।

बस चुनाव के समय ही क्यों , ये जनार्दन बन जाते हैं।

बाद में राज ये खुलता है कि, वो तो बस प्रवंचित हैं ।

तेरे बीच के बहुत लोग , थोड़े सुख से भी वंचित हैं।

 


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