स्त्री
स्त्री
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जब जब देखता हूँ
आसमान और धरती
दिशाएँ और प्रकृति
मृत जीवित सभ्यताएं
बाह्य अंतः संस्कृति
न जाने क्यों सबमें
दिखती मुझे एक स्त्री
कभी हँसती- खेलती
कभी रोती- विलखती
कभी सहती- गहती
कभी उठती- गिरती
अंततः फिर खड़ी होती
और सबकुछ संभालती
हो दर्द से बेपरवाह
सृजन में रत
बंजर में भी
पुष्पित पल्लवित स्त्री।