सांसों का जमघट !
सांसों का जमघट !
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कैसी है ये दुविधा
जहां ,,,,,,
ये ज़िन्दगी है
मगर जिन्दगी नहीं,
इसलिए कि
कभी तो खुद ही उसे
डुबो देते हैं
ख्वाहिशों के समंदर में,
बिखेर देते हैं
ख्वाबों के चंद कतरे,
इन्हीं में उलझी हुई जिन्दगी
भूल जाती है
जीने का असली मकसद।
इसी चक्कर में ही तो
अपने आज को कभी जी न सकी,
आने वाले कल कभी पा न सकी,
आज डूब गया बीच भंवर में
कल बिखर गया
बस यूं ही इधर-उधर !
ये ज़िन्दगी भी तो फिर
जिन्दगी न रही
यह गई महज़ बनकर
सांसों का जमघट !