रे मीत कहाँ हो
रे मीत कहाँ हो
रे! मीत, कहाँ हो तुम?
मेरे गीत, कहाँ हो तुम??
कालिंदी नदी कूल है उपवन,
कदम्ब मूल, है बैठा कान्हा।
माधवमुरली धुन जब बहती
कालकूट को अमृत बनाती।।
मुरलीधुन में मोहित होकर
मुरलीधर से मिलने आकुल
लहरों सी बेचैनी ले, राधा
आज छिपी, किस अंधेरे में??
कितने हृदयों की धड़कन थे वे
कितनी सदियों की वह दीवानी
कितने जन्मों की जोड़ी, किन्तु
आज विलीन कहाँ, किस ओर।।
रे! मीत, कहाँ हो तुम
मेरे गीत, कहाँ हो तुम??
मर्यादा पुरुषोत्तम रघुकुल राम
छाया बन साथ भाई लक्ष्मण थे।
प्राणों में आहें भर प्रियतम की
उर्मिला की करुण कहानी थी।।
किसकी आँखों के आंसू बन
किस सरयू में डूब गए तुम।
किस कानन में वेश बदलकर
किस वड़वानल में राख हुए।।
रे! मीत, कहाँ हो तुम
मेरे गीत, कहाँ हो तुम??
कब भादो, कब वसंत गया था
वल्लरियों में कब कलियां आई
उपवन में आज शोर भयंकर है।
सड़के स्वार्थों की भीड़ भरी है।।
इस भीड़भाड़ में, धक्कम धुक्की में
गलियों की, छल की होड़ा होड़ी में
पैसों की लालच में बनते रिश्तों में
मैं तन्हा हूँ, दम घुटने लगता है।
रे! मीत, कहाँ हो तुम
मेरे गीत, कहाँ हो तुम??
आपस लड़ते नाज़ुक रिश्तों में
एक बार जी भरकर रो लूँ मैं।
शहरीपन की घोंघी दुनिया में
कैसे दम घुट - घुट जी लूँ मैं।।
घमंड भरी आत्मा के अंतर
कान्हा, कैसे तुमको पहचानूँ।
मतलब की दुनिया में आज
मेरी राधा, कहाँ तू खोई है।।
रे! मीत, कहाँ हो तुम
मेरे गीत, कहाँ हो तुम??
रे! मीत, कहाँ हो तुम
मेरे गीत, कहाँ हो तुम??