पतंग
पतंग
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खुदी अपनो को काट, इतराती है पतंग ।
डोर कहीं और है, भूल जाती है पतंग ।।
केसरी करो लाख, आसमान वतन का ।
रंगों को एक कर, तिरंगा बनाती है पतंग ।।
वह चाहते है, सदा दबी रहे तमाम की ।
दायरे छोड़, शाहीन कहलाती है पतंग ।।
पेंचों से वह लड़ती, डूबती ओर उभरती ।
आसमानों पर इंकलाब लिखती है पतंग ।।
क्या शीराजा बिखेरेगी मगरूर हवा उसका ।
मुखालफतों में उड़ना जानती है पतंग ।।
