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Dr. Sharik Sheikh

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पतंग

पतंग

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खुदी अपनो को काट, इतराती है पतंग ।

डोर कहीं और है, भूल जाती है पतंग ।।


केसरी करो लाख, आसमान वतन का ।

रंगों को एक कर, तिरंगा बनाती है पतंग ।।


वह चाहते है, सदा दबी रहे तमाम की ।

दायरे छोड़, शाहीन कहलाती है पतंग ।।


पेंचों से वह लड़ती, डूबती ओर उभरती ।

आसमानों पर इंकलाब लिखती है पतंग ।।


क्या शीराजा बिखेरेगी मगरूर हवा उसका ।

मुखालफतों में उड़ना जानती है पतंग ।।


 


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