फिर भी पराई हूँ
फिर भी पराई हूँ
जब से ब्याह के आई हूँ, चैन से सो ना पाई हूँ।
इस मकान को घर बनाया मैंने,
फिर भी मैं पराई हूँ।
सुबह सवेरे पाँच बजे, बजता जब अलार्म है,
याद आता माँ का वो काम है,
कैसे सुबह सवेरे ही उठ के काम पे लग
जाया करती है, हमारी नींद में विघ्न ना हो,
धीरे-धीरे, हौले -हौले सारे काम निपटाती है।
आठ बजे तक हम थे सोते,
वो पाँच बजे उठ जाया करती थी।
अब मैं भी वही सब करती हूँ।
माँ -बाबु जी को चाय देकर, नहाने का
गर्म पानी लगाना है,
फिर किचन में जाकर मुझ को नाश्ता भी तो
बनाना है।
पति देव को भी तो चाय का प्याला पकड़ाना है।
कपड़े स्त्री करके उनको मौज़े,
जूते, टाई, रूमाल, बटुआ भी थमाना है।
लंच बॉक्स में कुछ खास हो आज,
ये फ़रमान भी आया है।
सास-ससुर को भी तो आज नाश्ते में
आलु के पराँठे खाने को मन ललचाया है।
झाडु़-पोंछा, बर्तन भी और अभी कपडे़ पड़े है
धोने को।
रिश्तेदारों को है आना आज खाना उनका
भी बनाना है।
सास के पाँवो में सूजन है,
चल नहीं वो पाती है,
बैठे-बैठे ताने कसती, हँस के मैं सह जाती हूँ।
अरे दुपहरी चढ़ आई है सर पर,
इक कप चाय भी ना मुझ को
मिल पाई है।
पूरे घर को है मुझे सँभालना,
क्योंकि मैं घर की रानी कहलाती हूँ,
अरे बहु ही बना लो मुझ को
इतना ही ठीक है,
रानी कहाँ बन पाती हूँ।
रिश्तेदार या मेहमान जो भी आए,
प्यार से आवभगत करूँ।
सब को अपना बनाया मैनें,
फिर भी मैं पराई हूँ।
मेरा मन भी तो है चाहता,
कोई मुझ को भी तो अपना कहे,
काश कोई मुझ को भी तो अपना कहे.......
