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डॉ मधु त्रिवेदी

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डॉ मधु त्रिवेदी

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नया दौर

नया दौर

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फैशन की दौड़ में सब आगे है

शायद यहीं नया दौर है

मम्मी पापा है परम्परावादी

मूल्यों की वे आधारशिला

वक्त ने बदला है उनको बेजोड़


पर मानस में है पुरानी सोच

शायद यहीं नया दौड़ है

भारतीय सभ्यता की है बेकद्री

पाश्चात्य सभ्यता को है ताली

पारलर सैलून खूब सजते

हजारों चेहरे यहाँ पूतते है

मेहनत के धन का दुरूपयोग है


बेबसियों का कैसा दौर है

शायद यहीं नया दौर है

बाला सुंदर सुंदर सजती है

मियाँ जी की कमाई बराबर करती है

टेन्शन खूब बढ़ाती है

अपने को चाँद बना दिखलाती है


प्रिय प्राणेश्वर की दीवानी है

हरदम न्यौछावर रहने वाली है

शायद यही नया दौर है

हिन्दी पर अंग्रेजी हावी है

भाषा बोलने में ख़राबी है

अंग्रेजी अपनी दासी है


हिन्दी कंजूसी सिखाती है

ना हम हिंदूस्तानी है

बाजार जब मैं जाती हूँ

मम्माओं को स्कर्ट शर्ट,जीन्स टॉप

पहना हुआ पाती हूँ

मम्मा बेटी में नहीं लगता अन्तर

बेटी से माँ का चेहरा

सुहाना है लगता

शायद यहीं नया दौर है


अंग्रेजी पढ़ना शान है

हिन्दी से हानि है

नयी पीढ़ी यहीं समझती है

इसलिये हिन्दी अंग्रेजी गड़बड़ाती

नौनिहालों का बुरा हाल है

माँ को मॉम कह कर

पिता को डैड कह कर

हिन्दुस्तान का सत्यानाश है

शायद यहीं नया दौर है


बुजुर्ग वृद्धाश्रम की आन है

घर में नवविवाहिता का राज है

मर्द भी भूल गया पावन चरणों को

जिनकी छाया में में बना विशाल वट है

संस्कृति, मूल्यों का ह्रास हो रहा

पाश्चात्य रंग सभी पर निखर रहा

शायद यही नया दौर है ।



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