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नस-नस में बसा

नस-नस में बसा

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मुझको मेरा गाँव बुलाता है, यादों में धीरे से मुस्काता है।

हर धड़कन में गुनगुनाता है, यादों में फिर याद आता है।।


इक बच्चे का देखूँ जब छोटापन, हँसती, झूमती यादों का बचपन

नटखट मनमोहक लीलाएँ संग-संग, रंग में डालते थे जो बस भंग

ऐसा रंगरंगीला बचपन जब-जब, कानों में कुछ कह-कह जाता है

मुझको मेरा गाँव बुलाता है


भोर सुबह से धमाचौकड़ी कर, पगडंडी में दौड़े फिर इधर-उधर

गुल्ली-डण्डा, छुप्पन-छुआई फिर, रात चाँदनी में बस धूम मचाई

झगड़ बैठे दोस्त इक-दूसरे से, फिर सबको मनाना याद आता है।

मुझको मेरा गाँव बुलाता है


वो बैलों की जोड़ी और बैलगाड़ी, करते थे शान से जिसकी सवारी

फ़सलों की हरियाली मन लुभाती थी, माँ संग बहन भी काटने जाती थी

हमारा वो खाना देने जाना बापू को, रह-रह के आँखों में उतर आता है

मेरा गाँव मुझको बुलाता है


वो हरे भरे जंगल और वादियाँ, मिलके करते गुड़ियों की शादियाँ

वो बरगद की छाँव वो नीम की दातून, नमक रोटी खा के बढ़ाते थे खून

गेहूँ की रोटी, चना, मत्र सरसों का सालन, अब अक्सर तरसाता है

मेरा गाँव मुझको बुलाता है


तालाब में जाकर जमके नहाना, चड्ढी बनियान पहन ही इतराना

इक-दूसरे पे फिर धौंस जमाना, बात-बात पे ज़ोर भी आजमाना

वो साथ-साथ रहना, साथ खाना आज फिर अहमियत बताता है

मेरा गाँव मुझको बुलाता है


बड़े हुए शहर आ गए हम, भला काम करके सब जगह छा गए हम

अपनों से दूर होते चले गये फिर, वक्त के फ़ैसले मंज़ूर होते चले गये फिर

धीरे-धीरे मजबूर होते चले गये फिर, ये भयानक मंजर रह-रह के रुलाता है

मेरा गाँव मुझको बुलाता है



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