बेटी की पुकार
बेटी की पुकार
हे माँ!
तू ही बता दे
मेरे जेहन में
उठते सवालों
के जवाब दे
हे माँ!
नौ महीने तूने ही
अपने गर्भ में रखा
कितने कष्टों से
मुझे जन्म दिया
हे माँ!
किसी माँ ने तो
पनपने से पहले ही
मेरा,मेरे एहसासों
का गला घोंट दिया
हे माँ!
जैसे-तैसे बड़ी हुई
परिवार की बंदिशें
मुझ पर हर पल
बस बरस पड़ती हैं
हे माँ!
पढ़ने, घूमने,यात्रा करने में,
मेरे साथ कोई न कोई जाता
जो मेरे अक्षम होने का
हरदम ही एहसास कराता
हे माँ!
आखिर ये बंदिशें
समाज में मेरे लिए ही हैं
लड़की होना आखिर क्यों?
गुनाह है समाज में
हे माँ!
लड़की होना ही काफ़ी है
शोषित होना लाजमी है
मानसिक,शारीरिक
यहां तक पारिवारिक भी
हे माँ!
फैशन किया तो घुड़की
खुल के जिया कभी नहीं
आखिर मेरे भी सपनें हैं
जो दिल में हिलोरें मारते हैं
हे माँ!
मुझे भी आसमाँ में
परवाज़ की ललक है
जमीं में कुलांचे
भरना चाहती हूं मैं
हे माँ!
मुझे भी आसमाँ चूमना है
पर्वतों को लांघना है
सागरों को मापना है
हर बाधा से टकराना है
हे माँ!
मुझे भी फौलादी बनना है
मन में साहस,जोश,जुनूँ भरना है
कुछ लीक से हटकर करना है
सुन रही है न माँ मुझे बेटा बनना है
हे माँ।
