ना जाये कभी भी ये बसन्त ।
ना जाये कभी भी ये बसन्त ।
क्या तरु में फिर निकली कलियाँ,
नभ में फिर से चहकी चिड़ियाँ,
चहुँ ओर हरीतिका देखी मैंने,
रहीं न कहीं पतझड़ गालियाँ।
ऐसी बसन्त ऋतु आई,
चारों तरफ हरियाली लाई,
पशु-पक्षी कलरव करते देखे,
कहीं कोयल है इठलाई।
बहती है पवन जो मन्द-मन्द,
हिय में उठते हैं कई द्वन्द,
उड़ रही पतंगों में दिखती,
हरि की हरियाली में बसन्त।
भौंरों का कुंजन मधुर गान,
सूखे तरुओं में दिख रही जान,
उड़ी रही संग फूलों पर मधु,
गाती वसन्त का यशोगान।
न तो कहीं सर्दी-गर्मी देखी,
न तो ही कहीं वर्षा देखी,
न देखा कहीं पीड़ित मन को,
न ऐसी कभी ही बसन्त देखी,
"सहज" धरा ही बदल गई,
चहुँ ओर खुशहाली हुई नई,
जब से वरण हुआ है हरा-भरा,
चेहरों पर देखी मुस्कान नई।
ना जाये कभी भी ये बसन्त
मुझको है प्यारा ये बसन्त।