मुझ को अपना आलंबन दे (नदी की आत्मकथा)
मुझ को अपना आलंबन दे (नदी की आत्मकथा)
गीत
मुझको अपना आलंबन दे
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सरिता बोली ये सागर से
बिन तेरे नहीं सुहाता है
मैं छोड़ छाड़ सब आई हूँ
मुझ को अपना आलंबन दे
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धरती ने प्यार दिया मुझ को
वो प्यार लिए फिरती वन वन
कण कण से मेरा रिश्ता है
कहलाती इसीलिए पावन
करती हूँ तृप्त हजारों को
पर प्यास लिए भटकी दर दर
निर्मल करती हूँ मैं सबको
मल ढोती हूँ मैली होकर
तू आत्मसात कर ले मुझ को
कर मुक्त नया तू जीवन दे
मैं छोड़ छाड़ सब आई हूँ
मुझ को अपना आलंबन दे
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मैं किसी हाल में रही मगर
तेरी ही ओर बढ़ी हरदम
कल कल छलछल में बही कहीं
छिपकर के भोगे कहीं सितम
ख़ुशियाँ पाकर मैं इठलाई
पर टूटी कभी न गम पाकर
हो चकनाचूर गई लेकिन
ग़म सदा भुलाया गा गा कर
तेरी चाहत में रुकी नहीं
अपना मुझ को अपनापन दे
मैं छोड़ छाड़ सब आई हूँ
मुझ को अपना आलंबन दे
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मुझ को बांधा है लोगों ने
बँध कहां मगर मैं पाई हूँ
मौका पाते ही निकल पड़ी
गिरते पड़ते मैं आई हूँ
मैं तेरे इश्क में पागल हूँ
बदनाम हूँ तेरी उल्फत में
ऐ प्रिये न मुझ को ठुकराना
मैं लिखी हूँ तेरी किस्मत में
लब चूम ले मेरे ऐ "अनन्त"
जो मुझे चाहिए वो धन दे
मैं छोड़ छाड़ सब आई हूँ
मुझ को अपना आलंबन द।।
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अख्तर अली शाह "अनंत" नीमच
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