मैं आत्मा हूँ, भटकती आत्मा
मैं आत्मा हूँ, भटकती आत्मा
सुनो, मैं आत्मा हूँ, भटकती आत्मा,
जो मुक्त होकर भी मुक्त नहीं हो पाई।
मैं छटपटा रही हूं, मुक्त होने को,
हाँ मैं हूँ असंतुष्ट-अतृप्त आत्मा।
जकड़ा हुआ है कुछ अपनों ने, कुछ सपनों ने,
रह गये थे अधूरे, तुम इंसानी भेड़ियों के कारण।
चाहत के अधूरे फ़साने,राग-द्वेष की आकुलता,
सांसारिक सुख-दुःख की कल्पना,
मुक्त होने नहीं देती।
बदले की परम विशुद्ध भावना,
निकलना नहीं चाहती।
दिल में नित ही उलझता सवाल
मुक्त होने नहीं देता।
सिर्फ टूटा विश्वास समझना नहीं चाहता कि
"शरीर ज्ञेय है और आत्मा अनादि अनंत है।
मैं न शरीर हूँ,न ही मन हूँ,
मैं न एन्द्रिय हूँ, न पंचतत्व हूँ।
मैं न मित्र हूँ, न रिश्तेदार हूँ।
गीता में भगवान कृष्ण ने मुझे,
सिर्फ और सिर्फ शुद्ध चेतन कहा है।
किंतु मैं भटक रही हूँ, खुद की ही मुक्ति के लिए
आत्म शांति एवं आत्मतृप्ति के लिए।
