माँ
माँ
उसे लफ़्ज़ों में क्या समेटूँ जिसमें सारी दुनिया ही सिमटी हो,
बेचैन दिल को सुकून जिसके आँचल तले ही मिलती हो।
जब माथे पे फ़िक्र की लकीरों को अपने आँचल से छुपाती थी,
इक नूर सा बरसता था जब मुझे देख के मुस्कुराती थी।
ऐसा लगता था मानो मुझमे ही उसकी सारी दुनियाँ थी,
मुझे ख़ुश रखने की चाहत में अपना सारा दर्द भूल जाती थी।
आज वो लफ़्ज़ तरसते हैं जो मुझे उससे कहना था
माँ कभी तू भी मुस्कुरा लिया कर,
कभी ख़ुद के लिए भी ख़ुशियाँ ढूँढ लिया कर।
ये फ़िक्र ये परेशानी तो आते जाते रहेंगे,
कभी तू भी तो ख़ुद के लिए जी लिया कर।
माना ख़्याल है तुझे सबका,
पर माँ तू भी तो कभी अपना ख़्याल रख लिया कर।
कभी कहा नहीं पर मुझे भी तेरी परवाह थी,
तू नहीं है आस पास ऐसे ख्वाब से भी डर जाती थी।
उन अल्फाजों की ख्वाहिशें अधूरे हैं आज भी,
मुकम्मल ना हुए इस दर्द में तड़पते हैं आज भी।
जिस दुनियाँ में रहने का तू सलीका सिखाती रही,
आज तेरे ना होने से ये दुनियाँ बहुत सताती है।
साथ तेरा था तो हर ख़ुशी मुकम्मल थी,
अब तो मुसल्लत है बस रंजिशें आसेब की तरह....।
मुझमें ज़िन्दा है कहीं ये महसूस होता है,
जब कोई मुझे तुझसा कहता है।
मुमकिन नहीं चंद अल्फाजों में तुझे समेट पाना,
और हजारों लफ़्ज़ में भी तेरे वजूद को पूरा कर पाना।
माँ ख़ुदा की ख़ूबसूरत नेअमत है तू,
इक लफ़्ज़ में समेटूं तो मेरा सारा जहां है तू।
