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Rekha Shukla

Others

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Rekha Shukla

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माँ का घर

माँ का घर

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*माँ का घर,*

*जो अब भी नहीं भूला !!*


*बरसों बीत गए,* 

*उस घर से विदा हुए,* 

*बरसों बीत गए,* 

*नई दुनिया बसाए हुए,*

 *पर न जानें क्या बात है.?* 

*शाम ढलते ही मन,* 

*उस घर पहुँच जाता है !!*

 

*माँ की आवाज़ सुनने को,*

*मन आज भी तरसता है,*

*महक माँ के खाने की,* 

*आज भी दिल भरमाती है,*

*शाम होते ही याद आता है,* 

*घर में हँसी व शोर का होना !!*


*पापा का काम से,* 

*लौट कर आते ही,*

*चाय का प्याला पीना,*

*दिन भर का हाल सुनाना,*

*भाई का खेलते कुदते आना,*

*शाम होते, याद आता है घर,*

*जहाँ सदा मेहमानों का था,* 

*लगातार आना जाना !!*


*बहुत मुश्किल से,*

*मन को समझाती हूँ,*

*वो दिन बीत गए,*

*अब तुम सपनों में,*

*जी लिया करो,*

*उन पलों को,*

*जो लौट के कभी,*

*न फिर आएंगे !!*


*आज भी, माँ से किए,*

*वादों को निभाती हूँ,*

*सबको ख़ुश रखने की* 

*अथक कोशिश में,*

*अपने आँसु पी जाती हूँ,*


*कोई कह दे मेरे भगवान से,*

*या तो शाम न ढला करे,*

*या माँ के घर की,*

*असहनीय याद न आया करे !!*


*बहुत ख़ुश हैं हम,*

*अपनी इस दुनिया में,*

*बिन माँगे सब पाया है,*

*लेकिन दिल से यादें,*

*कौन निकाल पाया है.?*


*माँ के घर की यादें,*

*कौन भुला पाया है.?*

*माँ के घर की यादें,*

*कौन भुला पाया है.?*


*उन सभी बेटियों को समर्पित, जो दूर, अपने संसार में व्यस्त हैं, और अपने घर गृहस्थी कि कर्तव्य निभा रही हैं।


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