माँ का घर
माँ का घर
*माँ का घर,*
*जो अब भी नहीं भूला !!*
*बरसों बीत गए,*
*उस घर से विदा हुए,*
*बरसों बीत गए,*
*नई दुनिया बसाए हुए,*
*पर न जानें क्या बात है.?*
*शाम ढलते ही मन,*
*उस घर पहुँच जाता है !!*
*माँ की आवाज़ सुनने को,*
*मन आज भी तरसता है,*
*महक माँ के खाने की,*
*आज भी दिल भरमाती है,*
*शाम होते ही याद आता है,*
*घर में हँसी व शोर का होना !!*
*पापा का काम से,*
*लौट कर आते ही,*
*चाय का प्याला पीना,*
*दिन भर का हाल सुनाना,*
*भाई का खेलते कुदते आना,*
*शाम होते, याद आता है घर,*
*जहाँ सदा मेहमानों का था,*
*लगातार आना जाना !!*
*बहुत मुश्किल से,*
*मन को समझाती हूँ,*
*वो दिन बीत गए,*
*अब तुम सपनों में,*
*जी लिया करो,*
*उन पलों को,*
*जो लौट के कभी,*
*न फिर आएंगे !!*
*आज भी, माँ से किए,*
*वादों को निभाती हूँ,*
*सबको ख़ुश रखने की*
*अथक कोशिश में,*
*अपने आँसु पी जाती हूँ,*
*कोई कह दे मेरे भगवान से,*
*या तो शाम न ढला करे,*
*या माँ के घर की,*
*असहनीय याद न आया करे !!*
*बहुत ख़ुश हैं हम,*
*अपनी इस दुनिया में,*
*बिन माँगे सब पाया है,*
*लेकिन दिल से यादें,*
*कौन निकाल पाया है.?*
*माँ के घर की यादें,*
*कौन भुला पाया है.?*
*माँ के घर की यादें,*
*कौन भुला पाया है.?*
*उन सभी बेटियों को समर्पित, जो दूर, अपने संसार में व्यस्त हैं, और अपने घर गृहस्थी कि कर्तव्य निभा रही हैं।
