"लाचार जिदंगी में भूख"
"लाचार जिदंगी में भूख"
अभी -अभी तो निशा हुई,
ये कैसे आज सुबह जल्दी हुई
सुन पंछी - परिंदों की चहचहाहट से,
आज मुझे आज रोना आया
कल का ही दिन तो अभी न बीता,
फिर ये कैसी सुबह हुई
अब किस -किस पर द्वेष दूं,
ये तो प्रकृति का विधान है
जहाँ सुबह का पता न चलता है,
चलो उठो, तुम छोड़ो इन बातों को
आ फिर घूमें तलाश रोटी की ,
एक घर, एक गली से
गुजर - गुजर कर,
अब भूख और बढ़ आई है
न मिलती रोटियों यह ,
यह तो मिलती गालीयां
कैसी ये बेबस लाचारी है छाई ,
जहाँ एक ही रोटी की तलाश में
इतने मील भटकते है,
फिर भी रोटी न हमें मिल पाती
दूर-दूर तक भटकते रह गए,
एक मुसाफिर बनकर
अचानक आँखों में चमक बढ़ उठी,
देख आगे एक रोटी जा मिली
मन ही मन कहने लगा,
बेसफलता न मिलती रोटी
दर-दर भटकना पड़ता है,
चाहे रवि की तेज किरणें क्यों न हो
चाहे बरसता गगन क्यों न हो,
फिर एक -एक आस कर -कर
रोटी की चाह को पूर्ण करते हम ।
