कविता का स्वरूप
कविता का स्वरूप
जहाँ जोर ना चले तलवार का
मोल ना हो व्यवहार का
तब सन्देश का माध्यम बन
समस्या करती छू मन्तर
कभी प्रेम प्रसंग का ताना बुन
शब्द लाती मैं चुन-चुन
व्याकुल हो जब कोई मन
अंकुश लगाती शंकित मन
सूचक दे छवि विषाद का
आन्तरिक सुख को करूँ अपर्ण
वीर रस का जब
बखान हूँ करती
मुर्दों में भी जीवन भरती
शब्दों के मैं मोती बना
भावना ऐसी व्यक्त करती
नीरस जीवन में जब
रंग रस मैं भरती
संकोची हृदय की जब व्यथा सुनती
उन्मुक्त कहानी और किस्से सुना
पुलकित उनके हृदय करती
प्रकर्ति का श्रृंगार कर
कोकिला की तान पर
फूलो की मुस्कान पर
झूम-झूम के घूम-घूम के
नाच जो करती
कविता खुद-ब-खुद ही बनती
रिमझिम सी बरसात में
बसंत के हर्ष उल्लास में
कीर्ति का जब उसकी
कविता बन जब वर्णन करती
सबके मन को हर्षित करती
कविता का जब रूप मैं धरती ||