कितना सच
कितना सच
कितना सच ये कि,
ये जो मैं हूँ, मेरा वजूद वो है ?
या है भी के नहीं I
जो दिखता है आईने में हू ब हू मेरे जैसा,
छाया है मेरी या आईने के अंदर मैं हूँ ?
ये दुनिया जो दिखती है इन नजरों से,
वो है यहाँ ?
या प्रतिछाया है बस मेरे मन की क्यों कैद है ये दुनिया,
चारदीवारी जब दिखती नहीं I
जो दिखती है ये नजरें, क्यों अक्सर ये सच नहीं यहाँ
क्यों झुठलाती है ये नजरें, जो वाकई सच है यहाँ
एहसास क्यों नहीं सच का इस दुनिया को, क्यों भ्रमित है सब यहाँ
सिर यहाँ क्यों झुके हुए है, जब बोझ नहीं है सिर पर
एहसास जिनसे छल रहे है खुद को, वो झूठ है इस दुनिया का
एहसास जिनका ये सच मानते है, उनमें सच्चाई कितनी है ?
रिश्तों की कमी नहीं यहाँ, पर उनमें गहराई कितनी है?
कितनी सच है ये दुनिया और कितनी नहीं,
मैं अभी हूँ भी यहाँ, के कभी था भी या नहीं I