खुली सोच
खुली सोच
थी व्यथित, स्तब्ध, निःशब्द , सकुचाई सी
हर प्रहार को भीतर तक झेलती, सोचती सी,
किया हो भी या नहीं, लेकिन
हर ग़लत काम की जिम्मेदारी बस मेरी
सोते जागते बस यही उलझन..
कुछ आगे को सोचने को अस्वीकार करता मेरा मन,
ऐसा मानो चलता रहा ..
मैंने सोचा कदाचित यही भाग्यवश है
जो लिखा होता है, वही प्राप्त होता है,
कहते हैं, दर्द दूर होता है, पर दुख नहीं
क्या मेरे भाग्य में थोड़ा भी सुख नहीं?
क्यों कुंठित सी रहती हूं, अपनी ही सोच में
क्यूं फंसी हूं अपने विचारो के भंवर में,
फ़िर ख़ुद को समझाया... कि
ज्यादा दुख में रहना भी व्यर्थ है
होता बस तन -मन खराब..
इसका नहीं कोई अर्थ है,
दुर्बल वैचारिक मानसिकता से
से कोई कार्य अच्छा नहीं होता है,
और अपना सुख दुख
ख़ुद अपने हाथ में होता है
करना है ख़ुद को इस बंधन से आज़ाद
ख़ुद बनना हैं अपनी आवाज़
अच्छा सोचूंगी ... तभी अच्छा होगा
कोशिश से ही हर सपना साकार होगा
अभिलाषा के अब पंख लगेंगे
दूर तक होगी मेरी उड़ान
बादलों को भेदती होगी अब गर्जना
चहूं ओर फैलेगा यश गान ।