कब से अख़बार नहीं पढ़ा
कब से अख़बार नहीं पढ़ा
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कब से अख़बार नहीं पढ़ा
ये जानते हुए की ख़बरें तो चलती रहती न जानने वाली ,
फ़िर मन भटकता है मन कि ख़बर पढ़ने के लिए
ख़बरे हर जगह फ़ैली है चेहरों पर सबके
जो बिना दिखने वाली स्याही से लिपटी है इस तरह
जैसे किसी की छुपाई साज़िश है चेहरे के पीछे,
आतंक तो ख़बर का वो हिस्सा है
जो चलता आ रहा है जन्मों से नुकसान करने की उम्मीद में ,
पर क्या आतंक मन कि उस गली में नहीं रहता
जो छुप कर दीवार के पीछे से अचानक गला पकड़ लेता है बिना छुए ,
ये अखबार मैंने रोज़ पढ़ा है बिना हाथ में लिए, क्या तुमने पढ़ा है ?
