काक विहग
काक विहग
तन्हा हूँ पर भीड़ में शायद;
भीड़ में जब - जब तन्हा रहता।
अश्रु से भीगा - भीगा तन है;
डोर से उलझा जो चला उड़ने।
काक विहग एक नन्हा सा मैं,
आकुल क्षुधा से चंचु खुला है।
आकुल दर्द से मेघ हों मूर्छित
अश्रु प्रवाहित करते जाएँ,
दर्द क्या इनका वृक्ष वो जानें
अश्रु जो उनका पुष्प खिलाए।
कण्टक उबारे 'कण्टक' जो कोई,
विष पहचाने 'विष' जो हो कोई ।
इंद्रधनुष जहाँ पल - पल छाए;
टुण्ड्रा के तम को क्या जानें।
पुष्प क्या जाने 'पत्र' के रंग को,
पत्र क्या जाने 'पुष्प' के रंग को,
प्रतिपल संग में; एक न रंग में;
रंग - रंग से नव रंग खिलाएँ,
है क्या प्रयोजन नर को इनसे
वह तो इसका फल ही जानें।
सूर्य जो आए लुप्त हो 'चंदा',
चंदा जो आए 'सूर्य' भी ओझल।
सूर्य क्या जाने 'चंदा' भी कोई,
चंदा क्या जाने 'सूर्य' भी कोई।
भ्रम में ही दोनों यह ही विचारे
"अम्बर पर एक मैं ही छाया"।
अम्बर विचारे "सागर नीला",
सागर विचारे "अम्बर नीला"।
अम्बर विचारे "सागर ही छाया",
सागर विचारे "अम्बर ही छाया"।
रंग में जो एक; संग में रहें न,
संग में जो एक; एक रंग में रंगे न।
काक विहग चंचु खोल के बैठा
"बाज ही शायद अन्न खिलाए"।
(तन्हा= अकेला, अश्रु= आँसू, तन=शरीर, काक विहग= कौवा पक्षी, आकुल=व्याकुल, क्षुधा= भूँख, चंचु=चोंच, कण्टक= काँटा, पत्र=पत्ता, नव=नया, अम्बर=आसमान)
("टुण्ड्रा" एक ऐसा स्थान है जहाँ छः महीने दिन एवं छः महीने रात होती है)