जिंदगी कुछ यूं ही
जिंदगी कुछ यूं ही
1 min
34
जब आया हूँ, कोरा कागज था।
लिखने का इतना ही पागलपन था सोच, समझ कर लिखना था।
अब जितना भी कोशिश करूँ,
जो लिखा, उसे मिटा नहीं पा रहा हूँ।
फिर रोने से क्या फायदा।
फिर भी वही लिखाई चली आ रही है।
चरित्र, इनसानों की गलतियाँ हैं।
