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Sandeep Murarka

Others

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Sandeep Murarka

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होली

होली

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होली के रंग में रंगा है कोई ,

कोई नशे में ही मशगूल है ।

चढ़ा नशा किसी को भंग का ,

कोई सत्ता के नशे में चूर है ।

हो रहा दहन गोबर के उपलों काठ का , 

पर राक्षसी होलिका अब जलती नहीँ ।

ना प्रह्लाद जैसे भक्त बच पाते हैं,

ना ही नरसिंह अब बचाने आते हैं ।

अब अबीर गुलाल कम उड़ते हैं ,

ताश पत्तों के दौर ज्यादा चलते हैं ।

अब ठंडाई नहीँ पिसवायी जाती है ,

शराब की बोतलें खुलवाई जाती हैं ।

मिलन का रहा नहीँ अब त्योहार ,

बजाने गाने का बढ़ गया कारोबार ।

ढप चंग गीतों की मस्ती हुई धूमिल ,

इवेंट वालों की सजती फूहड़ महफिल ।

उपाधी वितरण से लोग ऊबने लगे ,

फेसबुक पर ही सबको विश करने लगे ।

महामूर्ख सम्मेलन में अब कोई जाता नहीँ ,

कवि सम्मेलन में दूसरा दौर आता ही नहीँ ।

त्योहार नहीँ ये अब केवल सेलिब्रेसन है ,

किसी का हॉलिडे, किसी का सीजन है ।

दौर चला है अब पानी बचाने का ,

याद आता दौर वो ड्रम में डूबाने का ।

काश वो दिन फ़िर लौट आते ,

फटते कपड़े, पर दिल जुड़ जाते ।

उछलता कीचड़ भले सड़कों पर ,

पर मैल दिल के सारे मिट जाते ॥



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