:हकीकत का फ़साना
:हकीकत का फ़साना
न जाने क्यों..?
कितना शोर था
वहाँ रिश्तों का
अब तुम मिल सकते हो
बातें कर सकते हो
बिन रिश्तों की रुकावट के
इससे अच्छी जगह कहाँ थी
जमाने में मुलाकात की
कभी तू उसका कभी वो
तेरी हुआ करती थी
जबकि बस तू और मैं
फसाना हमारा था
कैसा डर था वो जमाने का
न जाने क्यों..?
यही तो हकीकत थी
शरीर के चलने की
आना आखिर यहीं था
दृश्य दुनिया की नजरों से दूर था
हम प्रकृति के साथ व
प्रकृति का सामंजस्य हमारा था
मुलाकात का दृश्य निराला था
यहाँ न कोई खलल वाला था
प्रीत तेरी मेरी जीवित रही
मुलाकात आज ऐसी की
नजर किसी की न रही
उस जहान नही तो यहाँ सही
नजर सिर्फ तेरी मुझ पर
ही देख आज टिकी रही
न जाने क्यों..?