हाल ए दिमाग
हाल ए दिमाग
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दिल देता जब उलझा।
तब मैं देता उसे सुलझा।
मुश्किलों में अक्सर साथ देता,
दिल के जैसे न आघात देता।
पसंद न करते इश्क़ वाले।
कर देते तब दिल के हवाले।
भूल जाते की मैं ही दोस्त हूँ,
मदहोशी में रखता मैं ही होश हूँ।
दर्द में आके मुझपे भड़कते,
झूठे सारे इल्ज़ाम लगाते।
साथ न दिया मैंने तुम्हारा,
दिल को था बस तेरा सहारा।
दिमाग हूँ मैं ख़ुद की कहाँ सुनता।
दर्द ऐ दिल को बस भुनाता ही रहता।
फिर एक नए सपने सहेज,
ज़िंदगी को फिर सहज बनता।