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गुज़रा वक़्त

गुज़रा वक़्त

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अनजाना कल कहाँ आज का मोहताज़ ठहरा ?

अँधेरा हो आज भले

हो सकता कल भोर सुनहरा ।

हर दिन भला एक समान न होते

देखा कितनोंं को राजा से रंक भी होते ।

 

वक़्त का भी अजीब लेखा - जोखा है

हर एक पल मानो

ख़ुद ही एक मौक़ा है ।

गुज़र गया वह कल था

यादों में सिमट गया वह पल था ।

हुई भोर, एक नया सूरज

एक नया आज

आशाऐं नई, एक नया आगाज़ ।

 

वक़्त देता ज़ख्म है पर मरहम भी

वक़्त देता ख़ुशियाँ संग गम भी

वक़्त देता ख्वाहिशें फिर अधूरे सपने

देखो आज वक़्त ऐसा

वक़्त पर ही वक़्त बदलने का इलज़ाम है

कौन कहता भला ?

कल का वक़्त आज का गुलाम है ।


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