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गलत ठहरा दिया तुमने

गलत ठहरा दिया तुमने

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कर्तव्य और मर्यादा की

मोटी – मोटी

दीवारों में

सदियों घुटती रही 
आज जब तोड़कर 
दीवारों को
आना चाहा बाहर
मेरा आचरण 
गलत ठहरा दिया तुमने।


तुम्हारे शब्द भेदी बाणों की
पीड़ा को सहती रही

कतरा – कतरा टूटती रही  
खामोश
आज जब खोलना चाहा
लब
तो मेरा व्याकरण 
गलत ठहरा दिया तुमने।


जीवन के रंगमंच पर

बनकर कठपुतली

करती रही नर्तन ,

तुम्हारी तनी रस्सियों पर 
अब जब चाहती हूँ

थिरकना , अपनी ताल पर

मेरा अंतकरण

मैला बता दिया तुमने ।

 

 

हर पीड़ा को दफ़न कर

अरमानों की राख तले

मुस्कान लपेटे रही ,
दोहरी चादर ओढ़े घुटती रही सदा  ,

आज जब चाहती हूँ
अपनी सही पहचान ओढ़ना
मेरा आवरण 
गलत  ठहरा दिया तुमने।

अपनी भावना , सम्भावना

वेदना , सम्वेदना

की जला होली

घुलती रही ,

तुम्हारे पौरुष की कैंची ने

कतर दिए पर ,मन पंछी के

तड़पती रही   

आज जब पाना चाहती हूँ

अपना आकाश

तो पर्यावरण गलत 
ठहरा दिया तुमने।


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