भूमिपुत्र
भूमिपुत्र
भूमिपुत्र वह
करता है प्रार्थना
बची रहे यह धरती, अम्बर
बचे रहेंगे लोग।
बोता है श्रम के बीज
सींचता है स्वेद कणों से,
लहू की लालिमा से
युक्त अभावों की खाद से
पोषित करता जमीं को
तब कहीं अंकुरित होते है
सम्भावना के बीज
लहराती हैं खुशहाली की फसल
काटकर खलिहानों में
लगाता है उम्मीदों के ढेर
सोचता है।
कई बरस हुए
पत्नी को नहीं गढ़ाया
कोई गहना।
लगाता है हिसाब
इस साल बेटी के दहेज को
लिया कर्ज चुक जाये शायद
देखता है सपने
अबकी छा लेगा पक्की छत
मांगता है मन्नत
अबकी बेटे को खरीद सकेगा ट्रेक्टर
मिलेगा आराम
बरसों से थके बैलों को
मगर अचानक
पाला मार जाता है
प्रार्थना को
जो लील लेता है
सभी संभावनाएं
बहा ले जाती है बाढ़
उसकी उम्मीदों को
बंध्या रह जाती है धरती
अन अंकुरित रह जाते है,
श्रम बीज।
भूमि पुत्र
वह लटकता रह जाता है
सम्भावनाओं के पेड़ तले
उम्मीदों की रस्सी से .
दबी रह जाती है
सारी अभिलाषाएं .|