गीले अरमान
गीले अरमान


आज फिर अपने गीले अरमानों को
अपने धुले हुए कपड़ों के साथ
बरामदे में दाल के घर से निकली हूँ
आज फिर मौसम की आँखों में देखा
उसका मन भी कुछ भारी भारी सा था
मैंने कहा उस से संभल जा
कुछ भी हो पर बरस ना
बरसे गई तो तकलीफ़ मुझे भी होगी
लौट कर मगर जब देखा
वह तो बरस कर हवाओं के साथ आगे बढ़ गयी
मेरे आंगन को समेट ने का काम बढ़ा कर चल दी
हाय मेरे गीले कपड़े !
वह तो खैर
खाट के कोने पर
पंखे के नीचे सूख जायेंगे
इन् गीले .. भारी अरमानों को …
सिराहने पर जगह दे दी मैने
गीले अरमानों को सिराहने पे
रख कर कोई सोये भी तो कैसे
आँखों से बहता रहेगा पानी तो
नींद आएगी कहाँ से
रात भर उम्र के इस रुत को देती रहूँगी गाली
कोसती रहूँगी जो भी आये ज़ुबानी
रात काटते काटते कटी
लो भोर भया .. धूप निकली ..
और आँगन फिर खिला
आज फिर अपने गीले अरमानों को
बरामदे में डाल के घर से निकलूंगी …
सूरज से कहूँगी मेरी तड़प से
अपनी ताप जगाये
मेरे सीने में जो लगी है
वह आग अपने सीने से लगाए ..
मेरे उम्मीदों की तेज से
सुनेहरा कर दे जहां
आज इतना बिखरे
के सूख जाये मेरे गीले गीले अरमान!